मंगलवार, 25 जनवरी 2011

वंचित जातियों का उत्थान - डॉ लोहिया का अधूरा सपना

                           "वंचित जातियों का उत्थान - डॉ लोहिया का अधूरा सपना"


प्रिय मित्रों,

लोकतंत्र में जनता का राज्य होता है | जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन वोट द्वारा करती है | देश की आबादी का ८०% वंचितों का है परन्तु आज़ादी के ६० वर्षों के बाद भी दिल्ली की गद्दी पर वंचितों का राज्य नहीं हो पाया है | इसका कारण आर्येत्तर जातियों का छोटे छोटे वर्गों / जातियों में बँटे रहना है | अल्पसंख्यक द्विज जातियां इन आर्येत्तर जातियों को प्रागैतिहासिक काल से ही विभाजित रखकर शासन करने में सिद्धहस्त रही हैं | चुनावों में वे आज भी उन्हें जाति / धर्म के नाम पर बाँट कर तथा अपने वोट एकजुट रखकर सत्ता प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं | फिर सत्ता के ज़रिये अपने द्विज वर्ग का हित साधन करते हैं | इस प्रकार लोकतंत्र के बावजूद बहुसंख्यक निर्बल और अल्पसंख्यक सबल बन बैठता है |
वोट की ताक़त स्वतंत्रता के पश्चात महसूस की जाने लगी थी | पिछड़ों में मध्य वर्ग जागरूक होने लगा | पशु पालक जातियों यथा ग्वाल, अहीर, गोप, गोरा, घासी, मेहर, घोसी, कमरिया, कडेरी व यदुवंशी जातियों ने अपने को एकीकृत करके यादव नाम दिया | इसी तरह लोध, लोधा, लोष्ठ , लोष्ठा, लोधी,  मथुरिया लोधी राजपूत हो गए | कुर्मी ,चनऊ, पटेल, सैन्थ्वार कुर्मी कहे जाने लगे | चमारों की तो ५१ जातियों जिनमे पिप्पल, निम् , कर्दम, जैसल, जैसवार, जाटव, गहरवार, अहिरवार, जटिया, कुरील, रैदास, दोहर, दोहरे, डोहरा, रविदास, चमकाता, भगत चमकाता , रोहिदास, रोनिगर, रैगड़, भाम्बी, रोहित, खाल काढ, भगत चर्मकार , रैया, धोंसियार, डांबरे , उत्तराहा, दक्खिनाहा, नोना चमार , मोची , मूची, ऋषि, भैरवा, ढेड़, समगर , सागर, सगर, चम्बर, धुसिया और झुसिया ने अपने को केवल दो नामो चमार एवं जाटव से ही परिभाषित किया | इसी प्रकार व्यापार से जुड़े सूढी, हलवाई, रोनियार ,पंसारी, चौरसिया, मोदी, कसेरा, केशरी, ठठेरा, कलवार, सोनार, पतवार, कम्लापूरी वैश्य , सिंदूरिया बनिया, माहुरी वैश्य, अवध बनिया, वंगी वैश्य, वर्णवाल, अग्रहरी वैश्य (पोद्दार), कान्धू , कसौंधन वैश्य और  केसरवानी वैश्य जातियों ने स्वयं को बनिया के रूप में पिछड़ा वर्ग आयोग में पंजीकृत करा लिया तथा एक जगह वोट करने लगे हैं  और आपस में शादी विवाह करने लगे हैं|  इनकी उपस्थिति भी प्रदेश व राष्ट्रीय राजनीति में होने लगी है |
यादव राष्ट्रीय स्तर पर अन्य समकक्ष जातियों को अपने में जोड़ने हेतु प्रयत्नशील है | स्व० चौ० चरण सिंह ने अहीर ,जाट तथा  गुर्जर जातियों को जोड़ने का प्रयास किया था | परन्तु इसे तोड़ दिया गया | द्विज जातियों द्वारा पिछडो को पिछड़ा एवं अति पिछड़ा तथा दलितों को दलित एवं अति दलित में बांटने का प्रयास किया जा रहा है | जरूरत एकीकरण की है , विखंडीकरण की नहीं | परन्तु पिछडो में पीछे छूटे लोगों को आगे लाने की जिम्मेदारी विकसित पिछड़ों को ही निभानी होगी | किन्तु खेद जनक है कि अब वे भी द्विजवादी दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं और अपने को नव द्विज के रूप में स्थापित करने लगे हैं | कमोवेश वंचितों के प्रति उनकी सोच भी द्विजों जैसी हो गई है |
"सोशलिस्ट ने बाँधी गाँठ, पिछड़ा पाए सौ में साठ" 
डॉ राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ों की राजनैतिक, आर्थिक, एवं सामाजिक स्थिति का गहन अध्ययन किया | आपने इनकी समस्याओं पर बहुत गहराई से मनन एवं चिंतन किया | आपने पिछड़ों को संगठित करने तथा उनकी समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने में अग्रणी भूमिका निभाई | आपने सप्त क्रांति का सिद्धांत प्रतिपादित किया था | लोक नायक जय प्रकाश नारायण ने इसे सम्पूर्ण क्रांति का नाम दिया | आपने पिछडो के लिए ६०% आरक्षण की वकालत की |
आपके अनुयायी स्व० कर्पूरी ठाकुर ने सबसे पहले पिछड़ों को सरकारी सेवा में आरक्षण देने को अमली जामा पहनाया | देश की जनता ने सम्पूर्ण क्रांति के पुरोधाओं को सत्ता सौंप दी, परन्तु लोहिया के बाद सम्पूर्ण क्रांति का सपना आज भी अधूरा है | एक बार एक पत्रकार ने डॉ राम मनोहर लोहिया से कहा था कि एक समय आएगा जब मध्यवर्गीय पिछड़ा, अति पिछड़ा तथा दलितों का शोषण करेगा | तब क्या होगा ? डॉ लोहिया ने कहा था,  तब वंचित अन्य पिछड़ा वर्ग संगठित होगा और संख्या के आधार अपना हिस्सा लेगा | लगता है, वह समय अब आ गया है |
प्राचीन काल में वर्णवादी व्यवस्था में संगठित होने का तरीका रक्त सम्बन्ध रहा था | अन्तर्जातीय विवाह से वंचित खटिक, खतवे, गोढ़ी , गंगे ,गंगौत, गन्धर्व, खटवास, धींवर, चाई, चंद्रवंशी, तांती, तुरैहा, तियर, तियार, थारू, धानुक, नोनिया, कहार , नाई , नामशूद्र, प्रजापति, मांझी मझवार , बेलदार , बिन्द, बियार, भास्कर, माली, मल्लाह, मारकंडे, भोटियारी, राजधोब, राजभर, राजवंशी, किसान, लोध, केवट, खुल्वट तथा वनचर जातियां एक जगह संगठित हों तथा आपस में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करें | तभी वंचित समाज का कल्याण हो सकेगा | इनकी संख्या ३५-४० % है | परन्तु इनमे से कई जातियों का विधान सभा लोक सभा में प्रतिनिधित्व तक नहीं है | इनकी एकता व संगठित शक्ति का राष्ट्रीय एवं राज्य कि राजनीति में गहरा असर पड़ेगा |
समाजवादी समाज का निर्माण हमारा संवैधानिक उद्देश्य है, समता मूलक समाज हमारा लक्ष्य है | बिना जातिवाद को ख़त्म किये समाजवाद आना मुश्किल है | सरकार की जाति तोड़ो योजनायें निष्फल रही हैं | उल्टा जातिवाद को हर स्तर पर बढ़ावा दिया जा रहा है |
दलितों एवं पिछड़ों के आरक्षण का लाभ इनकी मध्यमवर्गीय कहे जाने वाली जातियों ने ही उठाया है | या यूँ कहें कि दूसरों को लेने नहीं दिया है  | और नतीजतन एक नये प्रकार का वर्ग आकार ले रहा है जो लोकतंत्र के बावजूद गुलाम है,  आरक्षण के बावजूद वंचित  है, सामाजिक न्याय के बावजूद पीड़ित है, बहुसंख्यक होने के बावजूद उपेक्षित है और समाजवाद के बावजूद शोषित है | यही वो वर्ग है जो प्रत्येक स्तर पर आज भी अंतिम पायेदान पर है |
आइये हम सब इस उजड़े, पिछड़े, दलित, शोषित, उत्पीडित, बहिष्कृत और वास्तव में वंचित कर दिए गए समाज के लिए संगठित होकर संघर्ष करने का संकल्प लें | 





बुधवार, 5 जनवरी 2011

!! गुर्जर आरक्षण - आवश्यकता या राजनीति !!

                                          
राजस्थान में गुर्जर आरक्षण की आग पुनः भड़क चुकी है | अनुसूचित जनजाति के आरक्षण कोटे की मांग को लेकर गुर्जर समुदाय फिर से आक्रोशित है | कडकडाती ठण्ड में गुर्जर दिल्ली-मुंबई रेलवे ट्रैक पर बैठे अपनी मांगे मनवाने की जद्दोजहद में हैं | सार्वजनिक संपत्ति को भी निशाना बनाया गया और जाम लगाकर राजमार्गों की रफ़्तार थामने का भी प्रयास किया गया | पुलिसिया संघर्ष में अनेकों घायल हुए तो कई फिर जेल गए | सरकार द्वारा फिर वार्ता की पेशकश की गई है | फिलहाल सभी वार्ताएं बेनतीजा साबित हुई हैं |
दरअसल मामला इतना सीधा नहीं हैं जितना सरकारें समझती आई हैं | गुर्जरों के समकक्ष राजस्थान में एक और जाति है मीणा | मीणाओं का खान पान ,रहन सहन ,संस्कार, मानव शास्त्रीय व्यव्हार, शैक्षिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति गुर्जरों से कदापि भिन्न नहीं है लेकिन इसी जनजातीय आरक्षण के बूते मीणाओं का न केवल राजस्थान सरकार में अच्छा दबदबा है बल्कि सरकारी योजनाओं का संचालन करने वाले राजस्थान के प्रशासन में मीणाओं की खासी भरमार है | इतना ही नहीं जनजातीय कोटे पर अपनी बादशाहत की बदौलत मीणाओं ने केन्द्रीय सेवाओं के उच्च पदों पर भी अपना झंडा गाड़ रखा है | केवल जनजातीय आरक्षण की बदौलत आई इस यकायक क्रांति की चमक ने गुर्जरों को चौंधिया कर रख दिया | सामाजिक ताने बाने में परस्पर बुने और आपस में गुंथे दो समकक्षीय समुदायों की विकासात्मक प्रक्रिया इतनी विभेद पूर्ण होगी कि एक मलाई खाए और दूसरे के हाथ खाली बर्तन तक न आये, ये गुर्जरों ने सोचा भी न था | संवैधानिक व्यवस्था ही निसंदेह कहीं न कहीं दोषपूर्ण है |
डॉ. लोहिया ने कहा था -" समाजवादी विचारधारा की सामाजिक सहिष्णुता ही पोषक है " | और यही समाजवाद  आज हमारे संविधान की आत्मा है | जब समाज से सहिष्णुता ही गायब हो जाएगी तो काहे का समाजवाद और कैसी संवैधानिक व्यवस्था ? गुर्जरों के आरक्षण का सर्वाधिक विरोध मीणा समाज द्वारा किया जाता रहा है | इसके पीछे मजेदार तर्क ये दिया जाता है कि गुर्जर अनूसूचित जनजाति के मानक पूरे नहीं करते | जब कि गुर्जर समुदाय जम्मू कश्मीर ,हिमाचल प्रदेश , उत्तराखंड व पंजाब सहित कई राज्यों में अनुसूचित जनजाति के रूप में घोषित है | इतना ही नहीं तत्कालीन  केद्रीय वन मंत्री श्री नमो नारायण मीणा द्वारा गुर्जर आरक्षण का यह कर विरोध किया गया कि अगर गुर्जरों को जनजातीय आरक्षण दिया गया तो मीणा समाज प्रदेश सरकार को सबक सिखाएगा क्योकि ऐसा करने से मीणाओं का कोटा कम हो जायेगा | ऐसी घटिया सोच एक केन्द्रीय मंत्री जैसे जिम्मेदार ओहदे पर बैठा शख्स रखता है तो आम मीणा का नजरिया सोचा जा सकता है |
यही असहिष्णुता समाज में वैमनस्य का कारण बनती जा रही है जो समाजवादी व्यवस्था के लिए न केवल खतरे की घंटी है बल्कि समाज के उन कमज़ोर और उपेक्षित वर्गों के लिए चुनौती भी है जो आरक्षण के सहारे राष्ट्र की मुख्य धारा में आना चाहते हैं और शिक्षा एवं विकास के ज़रिये अपनी आजीविका में सुधार लाना चाहते हैं | अब आरक्षण कोई नया प्रयोग तो है नहीं, ना ही ये किसी ख़ास जाति या समाज की संपत्ति ,बपौती या जायदाद है जो एक ही समाज इसका फायदा ले और दूसरे यदि इस की मांग करें तो उन्हें नियम कानून पढ़ा कर टरका दिया जाये | दुनिया के १२० से ज्यादा मुल्कों में किसी न किसी रूप में आरक्षण लागू है |  बहुसंख्यक दलित या पिछड़ों के सामने अल्पसंख्यक दलितों या पिछड़ों की उपेक्षा सरकारों के लिए अच्छा संकेत नहीं है | बहुसंख्यक दलित यदि ये सोचते हैं कि किसी अन्य जाति द्वारा कोटे में शामिल हो जाने से उनकी जाति का हिस्सा कम हो जायेगा तो ये बात आपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसी होगी क्योंकि आरक्षण से सबसे ज्यादा किसी का कोटा कम हुआ है तो सवर्णों का | अब दलित/पिछड़े  खुद किसी समाज के आरक्षण का  किस अधिकार से विरोध कर सकते हैं | और यदि दलित / पिछड़े ही एक दूसरे के आरक्षण का विरोध बंद नहीं करेंगे तो निश्चित ही एक दिन आरक्षण ख़त्म कर दिया जायेगा | वैसे भी यह व्यवस्था नितांत तात्कालिक एवं समीक्षात्मक है |  बाबा साहेब डा० अम्बेडकर की आरक्षण परिकल्पना सम्पूर्ण दलित समुदाय के लिए थी न कि दो -चार जातियों के विकास के लिए |
कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व  में २३ मई २००८ को आरम्भ हुए इस आरक्षण आन्दोलन में जमकर सियासत भी हुयी | राजस्थान की तत्कालीन भाजपा सरकार में मंत्री श्री कालू लाल गुर्जर एवं विधायक प्रहलाद गुंजल ने आन्दोलन को सरकार के इशारे पर बाँट दिया | बँटे हुए गुर्जरों की अब मांगे भी अलग हो चुकी थीं | आधे गुर्जर अब जनजातीय कोटे की मांग छोड़ कर, मीणाओं के दबाब में आई वसुंधरा सरकार की पेशकश विशेष पिछड़ा वर्ग आरक्षण कोटा लेने को तैयार हो गए | जब कि इसी पिछड़े वर्ग की आरक्षण सूची में गुर्जर ३० सालों से हैं | किन्तु २००१ में पिछड़े वर्ग में जाटों के शामिल हो जाने से गुर्जरों के लिए बची खुची गुंजाइश भी जाती रही | २००४ के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले तत्कालीन बाजपेयी सरकार द्वारा गुर्जरों को जनजातीय दर्ज़ा देने का ऐलान भी किया गया था वो भी जयपुर जाकर | केन्द्र से भाजपा के सफाये के बाद गुर्जरों की  प्रदेश  भाजपा सरकार से ही आस बची थी | ये बात भी सच है कि गुर्जरों का विकास अनुसूचित जनजाति आरक्षण दिये बिना संभव  नहीं है और वे इसके मानक भी पूरे करते हैं | किन्तु उनकी ये मांग जयपुर व नई दिल्ली से हर दफा खारिज कर दी गई | फलस्वरूप आन्दोलन की परिणिति हुयी|
इधर बैंसला के लोकसभा चुनाव लड़ने व करारी हार ने आन्दोलन को पूरी तरह राजनैतिक व धड़ेबाजी में बाँट दिया | हालांकि  पूरे मामले में सचिन पायलट की चुप्पी रहस्यमय रही और उनकी सक्रियता भी उनके निर्वाचन क्षेत्र तक ही रही | यदि सचिन पायलट चाहते तो प्रदेश की गहलौत सरकार पर दबाब बना कर केंद्र सरकार को जनजातीय आरक्षण का प्रस्ताव भिजवा सकते थे और वहां से इसे मंज़ूरी भी दिला सकते थे लेकिन मीणा वोटों का कांग्रेस से छिटक जाने का डर भी था | अब लब्बोलुआब ये है कि बैंसला किसी भी सूरत कोई राह निकालना चाहते हैं ताकि बात रह जाये लेकिन धड़ेबाजी में बटें आन्दोलन और बिखरे हुए गुर्जरों की फिलहाल बात बनती नज़र नहीं आ रही |

 कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए |
 कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ||

रविवार, 2 जनवरी 2011

नव वर्ष हो मुबारक !!

सभी सजातीय बंधुओं को नए वर्ष की शुभ कामनाएं | आप जानते ही हैं चुनौतियों से लड़ते लड़ते फिर एक साल होने को आया है | हालात मुश्किलों भरे हैं | माहौल पेचीदा है| संभावनाएं शून्य हैं | उम्मीदें कमज़ोर हैं | नेतृत्व मूकदर्शी है | संगठन नाममात्र है | सरकार संवेदनहीन है | नीतियाँ पक्षपाती हैं | अधिकारी बहरे हैं | समाज लाचार है | लेकिन फैसला अब भी बाक़ी है और ज़रूरी भी |

अब बदलाव ही एक मात्र विकल्प है | आइये नए साल में शपथ लें कि समाज विरोधी ताक़तों का डट कर मुकाबला करेंगे, अन्याय और  भाई-भतीजाबाद की नीतियों पर चलने वाली एवं  बहुसंख्यक दलितों के सामने अल्पसंख्यक दलितों की उपेक्षा करने वाली इस आताताई सरकार को बदलेंगे और बदलाव लायेंगे  |