केंद्र सरकार को चाहिए कि एक उच्च स्तरीय संवैधानिक आयोग का गठन करके अनुसूचित जाति/जनजाति आरक्षण की समीक्षा करे और SC/ST आयोग को इस प्रक्रिया से दूर रखे। समीक्षा में पर्याप्त विकसित और भागेदारी पाई जातियों को बाहर कर अन्य नई प्रस्तावित जातियों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
64 वर्षो से जो जातियां SC कोटे में इंजॉय कर रही हैं उनकी तुलनात्मक स्थितियां भी सबके सामने आनी चाहिए। जबकि इस दिशा में न्यायालय से लेकर RTI तक के जवाब देने की स्थिति में सरकार नहीं है। वर्तमान प्रक्रिया में आरक्षण का मूलभूत उद्देश्य हाइजैक कर लिया गया है और यह व्यवस्था में वंचितों की भागेदारी सुनिश्चित की बजाय वोटबैंक और उसके जरिये आरक्षित समूहों में वर्चस्व कायम करने का हथियार बनता जा रहा है।
आरक्षण दुनिया के हर देश में किसी न किसी रूप में लागू है यहाँ तक कि विकसित कहे जाने वालों देशों में यह प्रणाली सशक्त रूप में लागू है। किन्तु 64 वर्षों के पश्चात् भी भारत में दलितों और पिछड़ों के विकास के नाम पर आरक्षण का उनके बड़ी जातियों ने इसका अपने हिसाब से दुरूपयोग किया है और अन्य किसी भी जाति को 64 वर्षों में उबरने ,पनपने या अपने समक्ष टिकने नहीं दिया है।
उत्तर प्रदेश बिहार के सन्दर्भ तथ्यात्मक विश्लेषण करें तो आंकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं। व्यवस्था भागेदारी का दम तो भरती है लेकिन अनेकों जातियों के लिए शासन प्रशासन में भागेदारी अब भी स्वप्न सरीखी है। SC सूची खटिक नट भांतु बेड़िया बधिक चिड़ीमार मझवार तुरैहा गोंड बेलदार धोबी मजहबी खरबार हरी ग्वाल बंगाली आदि जातियों का प्रतिनिधित्व शून्य प्रायः है जो प्रमाणित करता है कि व्यवस्था में कहीं न कही दोष है। इसी प्रकार पिछड़े वर्ग की 40% जातियां तमाशबीन बनी हुयी अपनी नियति पर रो रही है। आरक्षण प्रणाली से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ, उल्टा उनकी स्थिति बदतर हुयी है।
मजेदार तथ्य यह है कि आरक्षण व्यवस्था जब हर दस वर्ष के लिए आगे खिसकाई जाती है तो इन्ही नट नगाडची ढोली डफाली कंजड केवट कहार मुड़ीयारी मिरासी बैजनिया गोंड पाटरी पनिका धीमर भान्तु सांसी सहरिया चिक चिकवा भूइयारों और भंगियों का सर्वे होता है और इन जातियों की दुर्दशा का रोना रोकर संविधान समीक्षा के नाम पर संशोधन करा लिए जाते है और फिर आरक्षण के नाम पर रोटी तोडती आई चंद ठेकेदार जातियों के संगठित समूह पुनः दस वर्षों के लिए आश्वश्त हो रूलिंग कास्ट ऑफ़ इण्डिया बन जाते हैं।
वास्तव में 64 वर्षों से लाभान्वित जातियों की ठेकेदारी पूर्ण मानसिकता और सरकारों की उनके वोटबैंक के सम्मुख दंडवत की मानसिकता व्यवस्था में भागेदारी से वंचित और बहिष्कृत तबके में आक्रोश पैदा कर रही है। नतीजतन आरक्षित दायरे में आने वाली वंचित जातियों को आरक्षण प्रणाली में दोष नज़र आने लगा है और वे वर्तमान आरक्षण प्रणाली की समीक्षा की मांग सार्वजनिक रूप से उठाने लगीं है।
सभी वंचितों में आरक्षण समान रूप में सुनिश्चित हो वर्ना यह विभेदकारी व्यवस्था समाप्त हो। आरक्षण में भाई भतीजावाद और जातीय दबदबा इसकी मूलभूत धारणा के विपरीत है।
64 वर्षो से जो जातियां SC कोटे में इंजॉय कर रही हैं उनकी तुलनात्मक स्थितियां भी सबके सामने आनी चाहिए। जबकि इस दिशा में न्यायालय से लेकर RTI तक के जवाब देने की स्थिति में सरकार नहीं है। वर्तमान प्रक्रिया में आरक्षण का मूलभूत उद्देश्य हाइजैक कर लिया गया है और यह व्यवस्था में वंचितों की भागेदारी सुनिश्चित की बजाय वोटबैंक और उसके जरिये आरक्षित समूहों में वर्चस्व कायम करने का हथियार बनता जा रहा है।
आरक्षण दुनिया के हर देश में किसी न किसी रूप में लागू है यहाँ तक कि विकसित कहे जाने वालों देशों में यह प्रणाली सशक्त रूप में लागू है। किन्तु 64 वर्षों के पश्चात् भी भारत में दलितों और पिछड़ों के विकास के नाम पर आरक्षण का उनके बड़ी जातियों ने इसका अपने हिसाब से दुरूपयोग किया है और अन्य किसी भी जाति को 64 वर्षों में उबरने ,पनपने या अपने समक्ष टिकने नहीं दिया है।
उत्तर प्रदेश बिहार के सन्दर्भ तथ्यात्मक विश्लेषण करें तो आंकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं। व्यवस्था भागेदारी का दम तो भरती है लेकिन अनेकों जातियों के लिए शासन प्रशासन में भागेदारी अब भी स्वप्न सरीखी है। SC सूची खटिक नट भांतु बेड़िया बधिक चिड़ीमार मझवार तुरैहा गोंड बेलदार धोबी मजहबी खरबार हरी ग्वाल बंगाली आदि जातियों का प्रतिनिधित्व शून्य प्रायः है जो प्रमाणित करता है कि व्यवस्था में कहीं न कही दोष है। इसी प्रकार पिछड़े वर्ग की 40% जातियां तमाशबीन बनी हुयी अपनी नियति पर रो रही है। आरक्षण प्रणाली से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ, उल्टा उनकी स्थिति बदतर हुयी है।
मजेदार तथ्य यह है कि आरक्षण व्यवस्था जब हर दस वर्ष के लिए आगे खिसकाई जाती है तो इन्ही नट नगाडची ढोली डफाली कंजड केवट कहार मुड़ीयारी मिरासी बैजनिया गोंड पाटरी पनिका धीमर भान्तु सांसी सहरिया चिक चिकवा भूइयारों और भंगियों का सर्वे होता है और इन जातियों की दुर्दशा का रोना रोकर संविधान समीक्षा के नाम पर संशोधन करा लिए जाते है और फिर आरक्षण के नाम पर रोटी तोडती आई चंद ठेकेदार जातियों के संगठित समूह पुनः दस वर्षों के लिए आश्वश्त हो रूलिंग कास्ट ऑफ़ इण्डिया बन जाते हैं।
वास्तव में 64 वर्षों से लाभान्वित जातियों की ठेकेदारी पूर्ण मानसिकता और सरकारों की उनके वोटबैंक के सम्मुख दंडवत की मानसिकता व्यवस्था में भागेदारी से वंचित और बहिष्कृत तबके में आक्रोश पैदा कर रही है। नतीजतन आरक्षित दायरे में आने वाली वंचित जातियों को आरक्षण प्रणाली में दोष नज़र आने लगा है और वे वर्तमान आरक्षण प्रणाली की समीक्षा की मांग सार्वजनिक रूप से उठाने लगीं है।
सभी वंचितों में आरक्षण समान रूप में सुनिश्चित हो वर्ना यह विभेदकारी व्यवस्था समाप्त हो। आरक्षण में भाई भतीजावाद और जातीय दबदबा इसकी मूलभूत धारणा के विपरीत है।