रविवार, 23 नवंबर 2014

समीक्षा करो या समाप्त करो

केंद्र सरकार को चाहिए कि एक उच्च स्तरीय संवैधानिक आयोग का गठन करके अनुसूचित जाति/जनजाति आरक्षण की समीक्षा करे और SC/ST आयोग को इस प्रक्रिया से दूर रखे। समीक्षा में पर्याप्त विकसित और भागेदारी पाई जातियों को बाहर कर अन्य नई प्रस्तावित जातियों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
64 वर्षो से जो जातियां SC कोटे में इंजॉय कर रही हैं उनकी तुलनात्मक स्थितियां भी सबके सामने आनी चाहिए। जबकि इस दिशा में न्यायालय से लेकर RTI तक के जवाब देने की स्थिति में सरकार नहीं है। वर्तमान प्रक्रिया में आरक्षण का मूलभूत उद्देश्य हाइजैक कर लिया गया है और यह व्यवस्था में वंचितों की भागेदारी सुनिश्चित की बजाय वोटबैंक और उसके जरिये आरक्षित समूहों में वर्चस्व कायम करने का हथियार बनता जा रहा है।
आरक्षण दुनिया के हर देश में किसी न किसी रूप में लागू है यहाँ तक कि विकसित कहे जाने वालों देशों में यह प्रणाली सशक्त रूप में लागू है। किन्तु 64 वर्षों के पश्चात् भी भारत में दलितों और पिछड़ों के विकास के नाम पर आरक्षण का उनके बड़ी जातियों ने इसका अपने हिसाब से दुरूपयोग किया है और अन्य किसी भी जाति को 64 वर्षों में उबरने ,पनपने या अपने समक्ष टिकने नहीं दिया है।
उत्तर प्रदेश बिहार के सन्दर्भ तथ्यात्मक विश्लेषण करें तो आंकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं। व्यवस्था भागेदारी का दम तो भरती है लेकिन अनेकों जातियों के लिए शासन प्रशासन में भागेदारी अब भी स्वप्न सरीखी है। SC सूची खटिक नट भांतु बेड़िया बधिक चिड़ीमार मझवार तुरैहा गोंड बेलदार धोबी मजहबी खरबार हरी ग्वाल बंगाली आदि जातियों का प्रतिनिधित्व शून्य प्रायः है जो प्रमाणित करता है कि व्यवस्था में कहीं न कही दोष है। इसी प्रकार पिछड़े वर्ग की 40% जातियां तमाशबीन बनी हुयी अपनी नियति पर रो रही है। आरक्षण प्रणाली से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ, उल्टा उनकी स्थिति बदतर हुयी है।
मजेदार तथ्य यह है कि आरक्षण व्यवस्था जब हर दस वर्ष के लिए आगे खिसकाई जाती है तो इन्ही नट नगाडची ढोली डफाली कंजड केवट कहार मुड़ीयारी मिरासी बैजनिया गोंड पाटरी पनिका धीमर भान्तु सांसी सहरिया चिक चिकवा भूइयारों और भंगियों का सर्वे होता है और इन जातियों की दुर्दशा का रोना रोकर संविधान समीक्षा के नाम पर संशोधन करा लिए जाते है और फिर आरक्षण के नाम पर रोटी तोडती आई चंद ठेकेदार जातियों के संगठित समूह पुनः दस वर्षों के लिए आश्वश्त हो रूलिंग कास्ट ऑफ़ इण्डिया बन जाते हैं।
वास्तव में 64 वर्षों से लाभान्वित जातियों की ठेकेदारी पूर्ण मानसिकता और सरकारों की उनके वोटबैंक के सम्मुख दंडवत की मानसिकता व्यवस्था में भागेदारी से वंचित और बहिष्कृत तबके में आक्रोश पैदा कर रही है। नतीजतन आरक्षित दायरे में आने वाली वंचित जातियों को आरक्षण प्रणाली में दोष नज़र आने लगा है और वे वर्तमान आरक्षण प्रणाली की समीक्षा की मांग सार्वजनिक रूप से उठाने लगीं है।
सभी वंचितों में आरक्षण समान रूप में सुनिश्चित हो वर्ना यह विभेदकारी व्यवस्था समाप्त हो। आरक्षण में भाई भतीजावाद और जातीय दबदबा इसकी मूलभूत धारणा के विपरीत है।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

सामाजिक पुनर्पहचान : आवश्यकता ,साजिश या झेंप

निरे कुतर्कों को बौध्दिकता का जामा पहना कर महज अपने अहम के लिए करोड़ों गरीब मछुआरों के जीवन संघर्ष को सिर्फ रोटी की जिद्दोजहद समझने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के समक्ष सवाल के तो खड़े कर सकते हैं किन्तु जवाब के नाम पर मोर्चा छोड़कर भागने वाले जब समाज के अधिकारों मानसम्मान और भागेदारी की लड़ाई को यह कर नया रुख देना चाहते हैं कि पहले राष्ट्रीय पहचान तय कर लो.…… तो हंसी आती है । 
जिस समाज का इतिहास आर्य जातियों से भी पुराना हो , जिस समाज का इतिहास आर्यो के भगवानों से भी पूर्ववर्ती हो उसे पहचान के संकट में फँसाना उसके संघर्षों को कमजोर करने जैसा है । क्या हम पहचान के मोहताज है ? क्या विश्व में हमारी पहचान किसी से छिपी हैं ? हमारी सभ्यता और संस्कृति किसी टाइटिल या जातीय नाम की मोहताज है ? भगवान कहे जाने अवतारों की मदद करने वाला समाज क्या अपनी शिनाख्त के लिए आज अपना नया नाम रखेगा ?
जो लोग मछुआ समुदाय और निषाद संस्कृति को टाइटिलीय झगड़ों में पचड़े में डालकर हमारी पुरातन और प्रागैतिहासिक कालीन पहचान को नए शब्दाडंबरों में पिरोकर अपनी झेंप मिटाना चाहते हैं दरअसल वे बुद्धिजीविता के नाम पर बौद्धिक आतंक का सहारा लेकर मछुआ समुदाय के आरक्षण की लड़ाई को संवैधानिक रूप से कमजोर करना चाहते हैं और आरक्षण विरोधी चरित्र के पोषक हैं पक्षधर हैं और पहरेदार हैं । 
मछुआ समाज को कश्यप निषाद में , फिर कश्यप को धीमर कहार और कश्यप में , कश्यप को कश्यप राजपूत और झिम्मर में , फिर कश्यप राजपूत को राजपूत और डोगरा में बाँटने वाले लोग अपने महासुदृढ़ आर्थिक स्तर की तुलना उप्र मप्र और बिहार के गरीब केवट धीमर से क्यों करते हैं जिसकी जाति को अंग्रेजों ने चोर डकैत कहकर सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया । उनसे आपकी समानता समक्षता और समभाव कैसे हो सकता है ? निषाद को काला कलूटा और जंगली कहकर आप कैसे सामाजिक एकता ला सकते हो ?
आप राजपूत कहकर अपनी झेंप मिटा सकते हो लेकिन जिस मेहनतकश समाज को राजपूतों ने उजाड़ा लूटा और ठगा हो , शहर गाँव और बस्तियों से दूर बसने पर मजबूर किया गया हो वो राजपूत कैसे हो सकता है ? 
हो सकता है पंजाब हरियाणा राजस्थान जैसे विकसित राज्यों के निवासी समाज बंधू सवर्णों और अर्थप्रधान सामाजिकता के कारण अपनी पहचान को नए आयामों में गढ़ कर अपने लिए नयी जमींन तैयार करते हैं लेकिन साथ ही वे करोड़ों वंचित शोषित वहिष्कृत उजड़े पिछड़े दबे कुचले मछुआरों द्वारा संघर्ष पूर्वक अपने संविधान सम्मत अधिकारों की तैयार जमीन को छीनने का काम भी करते है । 
मछुआ समुदाय के संघर्ष की निर्णायक बेला पर पहचान का संकट खड़ा करना अपने आस्तित्व को नकारने जैसा है ।अपने वर्षों के आंदोलन को अपने हाथों नष्ट करने जैसा है । आवश्यकता अपनी पहचान को ताल ठोक कर और मजबूत करने की है न कि पहचान को नकारने की……जैसा कि कुछ बुद्धिजीवी मित्र अभियान छेड़े हुए हैं ।

मंगलवार, 27 मई 2014

मत भूलो .........!

मोदी मंत्रिमंडल से वंचित रखे गए मछुआ समाज के लोगों,
मत भूलो .........!
मत भूलो कि तुम इसे देश की मूलसंस्कृति का प्राणतत्व हो
मत भूलो कि तुम भारत भूमि के प्रथम अधिकारी हो
मत भूलो कि तुम्हारा अस्तित्व आर्यों के भगवानों से भी पूर्ववर्ती है
मत भूलो कि अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए राम भी तुम्हारे द्वार आये थे
मत भूलो कि तुम्हारी मत्स्यगंधाओं को ऋषियों की वासनाओं ने रौंदा है
मत भूलो कि तुम्हारा स्वर्णिम अतीत आर्यों को अबतक मुंह चिढाता है
मत भूलो कि
तुम्हे अंगुष्ठविहीन करके भी कोई परास्त न कर पाया
मत भूलो कि तुमने एकलव्य का बदला श्रीकृष्ण की हत्या से लिया था
मत भूलो कि तुमने स्वाभिमान के लिए जंगलों में रहना स्वीकार किया
मत भूलो कि तुमने बहन बेटियों का सौदा मुसलमानों से नहीं किया
मत भूलो कि
तुमने आजादी की लड़ाई पहले मोर्चे पर लड़ी
मत भूलो कि
तुम्हे अंग्रेजों और सवर्णों ने अपराधी जाति ठहराया
मत भूलो कि
तुम 1931 में वंचित घोषित होने के बाद भी वंचित हो
मत भूलो कि तुम 1947 में भी आज़ाद नहीं हुए
मत भूलो कि
तुम आज़ाद भारत में 5 वर्ष 16 दिन हिन्दुओं के गुलाम रहे
मत भूलो कि
तुम्हें संविधान में घोषित अधिकार आज भी नहीं मिले
मत भूलो कि तुम्हे
पहले SC फिर ST फिर विमुक्त और अंत में पिछड़ा घोषित कर तुम्हारे संवैधानिक अधिकारों को भ्रम फैलाकर रोका गया।
मत भूलो कि तुम्हे सैकड़ों उपजातियों में बांटकर अल्पसंख्यक बनाया गया।
मत भूलो कि तुम बहुसंख्यक हो और अपने वोट की ताक़त पर देश में अव्वल हो
मत भूलो कि तुम दूसरों को अपना भाग्य विधाता मान सत्ता सौपते रहे
मत भूलो कि
तुम्हारा संगठित होना आज भी आर्यों को खलता है
मत भूलो कि तुममे भी नेतृत्व क्षमता है
मत भूलो कि तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन तुम्हारा बिखराव है
मत भूलो कि
तुम लोकतंत्र में राजनैतिक सोच के बिना कुछ भी नहीं
मत भूलो कि तुम्हारी पीढियां पिछड़ेपन हेतु तुम्हे ही दोषी ठहराएंगी
मत भूलो कि
तुम्हारी नन्हीं सी कोशिश एकता का मजबूत आधार हो सकती है
मत भूलो कि तुम अपने वोट की शक्ति से देश के शासक बन सकते हो।

मत भूलो .........!

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

कहारस्थान : एक सार्थक मांग ,जिसे गणतंत्र के नाम पर वापस लिया

जादी के आखरी दशक में देशभर में राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियाँ काफी तेजी से प्रारम्भ हो गई थीं। 100 वर्षों की स्वतंत्रता संग्राम के चलते अंग्रेजों के देश छोड़कर जाने के आसार दिखने लगे थे। और ये निर्धारित हो गया था कि अब अंग्रेजी राजसत्ता ज्यादा दिनों चलने वाली नहीं हैं । एक जहाँ सिखस्थान (बाद में खालिसतान ) की मांग पंजाब में मास्टर तारासिंह उठा रहे थें। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भी उत्तर पूर्व में डा0 जेड.ए. किंजों नागालेंड की मांग कर रहे थे। मिजोरम में लालडेगा, झारखंड, में बिहार, छोटा नागपुर, मध्यभारत, महा कौशल में डा0 जयपाल सिंह पृथक झारखंड गणतंत्र की मांग लेकर चल पड़े थे। देश का पिछड़ा आदिवासी निषाद (भोई) समुदाय भी आन्दोलित हो रहा था, तब भोपाल स्टेट के डा0 इन्द्रजीत सिंह ने आल इंडिया कहार महासभा का गठन किया और इसकी जनरल मिटिंग में पारित प्रस्ताव, जिसके माध्यम से पृथक कहारस्थान की मांग तात्कालिक लार्ड पेथिक लारेन्स (ब्रिटिश केबिनेट मिशन लंदन) वायसराय दिल्ली को एक ज्ञापन आल इंडिया कहार महासभा द्वारा दिनांक 20/04/1946 को दिया गया।
                  सिख धर्म के उत्थान में कहार समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। इस कारण पंजाब के सामाजिक नेताओंने कहारस्थान पर भारी जोर दिया। जिस समय कांग्रेस आंदोलनों के फलस्वरूप साइमन कमीशन भारत आया था, उस समय हमारे नेताओं जिनमें डा0 इन्द्रजीत सिंह के साथ श्री महावीर प्रसाद , श्री दुर्गादत्तसिंह कुशन बिजनौर,रायबहादुर ऑफ नवाब रामपुर सर चौधरी नत्थू सिंह तुराहा, श्री गुलजारी मलजी बाथम पीलीभीत आदि बुद्विजीवी समाज के नेता थें, उन्होंने देश की स्वतंत्रता के समय कहारस्थान की मांग की थी। इस कारण देश के दूसरे प्रातों में भी कुछ इस प्रकार की मांगें उठी थी। छूत एवं अछूत का प्रश्न भी गर्माहट के साथ उठा था। यह प्रश्न बाबासाहेब अबेँडकर जी ने उठाया था। जिस समय समाज का प्रबुद्ध वर्ग जाति का नाम बताने में लज्जा अनुभव करता था, उस समय डा0 इन्द्रजीत सिंह जी ने सार्वजनिक मञ्च से कहार महासभा का झंडा उठाया था, जिसमें निषाद महासभा का यथा संभव सहयोग मिला था। इसी समय लगभग सन 30-31 में होंशंगाबाद में बाबू गुलाबसिंह बाबने जी की अध्यक्षता में कहार सम्मेलन का वृहद् आयोजन किया गया था, जिसमें भोपाल सहित देश के विभिन्न प्रान्तों से आए नवयुवकों ने स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया था, डा0 सहाब समाज को संगठित करने, उनकी समस्याओं को अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश तथा स्थानीय शासन के सामने नियमित रूप से रखते रहे। राजनीति के मञ्च पर विशेष रूचि के साथ उन्होंने सन 1945 के पश्चात भाग लिया।
भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई के समय ही हमारे नेताओं को अनुमान हो गया था कि स्वतंत्रता के पश्चात हमारे समाज के साथ न्याय नहीं किया जावेगा और हमारा समाज अंग्रेजों के चंगुल से छूटकर हिन्दू सवर्णों की गुलामी कि ओर अग्रसर हो जायेगा । इसीकारण कहारस्थान की मांग की गई थी, मास्टर तारासिंह जी ने भी खालिस्तान मांगा था। सन् 1946 में देश की अन्तरिम सरकार बनी थी तब लाहौर से प्रकाशित डान अखबार ने एक कार्टून छापा था, नीचे लिखा था, पंडित नेहरू वरूण देव यानि जलदेव के दरबार में अर्थात अन्तरिम सरकार में हमारे समाज का प्रतिनिधि लेने की बात चल रही थी। कांग्रेस के द्वारा आश्वासन देने पर समाज ने भारत स्वतंत्रता के पक्ष में कहारस्थान की मांग वापस ले ली थी।
              इस समय समाज को गोत्रों के आधार पर संगठित करने के प्रयास त्याग दिया था, क्योंकि भारत में भिन्न भिन्न प्रदेशों में अनेंकों गोत्र, उपजातियां हैं, इसी समय समाज का पत्र कर्णधार का प्रकाशन भोपाल से किया, कुछ समय पश्चात् उसका प्रकाशन एक प्रकाशन मंडल बनाकर झांसी से प्रकाशित किया गया, जिसके मुख्य प्रकाशक श्रीसुन्दरलाल जी रायकवार थे। निषाद समुदाय की राजनीतिक गतिविधयों का प्रमुख केन्द्र भोपाल रहा, ओर राजनैतिक चेतना का केन्द्र बिन्दु अखिल भारतीय निषाद समाज का " कर्णधार " नामक अखबार
रहा है।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

चलो निषादों ! दिल्ली पहुँचों..........


हुत हो चुकी अब अनदेखी, आर करो या पार करो।
दिल्ली चलकर करो धमाका, सत्ता पर प्रहार करो ।।

चलो निषादों ! दिल्ली पहुँचों, संसद पर अधिकार करो ।
एक महाभारत दिल्ली में निश्चित अबकी बार करो ।।

 रक्त पिपासू देहली वाली सड़कों ने आह्वान किया ।
अब निषाद दें रक्त, यहाँ वीरों ने निज बलिदान दिया ।

स्वतंत्रता संघर्ष प्रमाण है, जो सड़कों पर आया है ।
जिस समाज ने रक्त दिया ,संघर्ष किया, कुछ पाया है ।

उठ निषाद ! अधिकार समर की सेनाएँ तैयार करो ।
चलो निषादों ! दिल्ली पहुँचों, संसद पर अधिकार करो ।।

जिस दिन तेरा लहू सड़क पर दिल्ली की बह जायेगा ।
उस दिन सूरज अधिकारों की कथा स्वयं कह जायेगा ।

आरक्षण अधिकार हमारा ,और नहीं टल पायेगा ।
अगर ठान लो तो संसद का, सत्र नहीं चल पायेगा |

दिल्ली की सड़कों पर आकर, तुम सत्ता पर वार करो ।
चलो निषादों ! दिल्ली पहुँचों, संसद पर अधिकार करो ।।

साठ बरस से वंचित मछुआ, अब अंगडाई लेता है
अपने हक़ के लिए चुनौती,  कांग्रेस को देता है।

उलटी गिनती शुरू हो गयी, कांग्रेस के जाने की ।
राहुल कितनी कोशिश करलो, अबके नाम बचाने की।

मनमोहन मछुआ को हक दो या जाना स्वीकार करो।।
चलो निषादों ! दिल्ली पहुँचों, संसद पर अधिकार करो ।।

कापी राईट @ अरुण कुमार तुरैहा
█║▌│█│║▌║││█║▌│║█