मंगलवार, 27 नवंबर 2012

तुलसी दास कृत रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की कुछ चौपाइयाँ और उनके निहितार्थ




 
तुलसी दास कृत रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की कुछ चौपाइयाँ और उनके निहितार्थ
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चौपाई :
* लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥1॥

भावार्थ:- भरत के सुंदर स्वभाव से मैं (केवट) उनके स्नेह को पहचान लूँगा। वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह (केवट ) भेंट का सामान सजाने लगा। उसने कंद, मूल, फल, पक्षी और हिरन मँगवाए॥1॥

निहितार्थ :- केवट ने भरत के लिए अपने जाति वालों के लिए कंद, मूल, फल, पक्षी और हिरन मँगवाए | इससे स्पष्ट है केवट/निषाद जाति शिकारी और माँसाहारी थी और साथ ही जंगल में रहने के कारण उस समय यह समाज कंद, मूल, फल, एवं मांसभक्षी भी था।

* मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥2॥

भावार्थ:-कहार लोग पुरानी और मोटी पहिना नामक मछलियों के भार (टोकरे) भर-भरकर लाए। भेंट का सामान सजाकर मिलने के लिए चले तो मंगलदायक शुभ-शकुन मिले

निहितार्थ :- कहार जाति के लोग प्राचीन काल से ही मछली का शिकार करते रहे है ,इस प्रकार यह मांसभक्षी जाति है।

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥

भावार्थ:-हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥4॥

निहितार्थ :- केवट ने राम से लौटते समय पधारने और मजदूरी/उतराई देने को कहा था जिसे राम ने अनसुना कर दिया और वापसी में पुष्पक विमान पर सवार होकर लंका से सीधे अयोध्या पहुंचे और राजकाज में संलिप्त होगये । इस प्रकार केवट के हिस्से में प्रतीक्षा का अंतहीन सिलसिला आज भी अनवरत चालू है ।

कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥1॥

भावार्थ:-मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूँ और लोक-वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ। पर जब से श्री रामचन्द्रजी ने मुझे अपनाया है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया॥1॥\

निहितार्थ :- केवट जाति को तुलसी दास ने कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति और लोक-वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर यानी अस्पर्श्य/अछूत बताया है जो प्रमाण है कि हम अन्त्यज हैं और अनुसूचित जाति आरक्षण पाने के प्राचीन अधिकारी हैं । यह समाज प्राचीन काल से ही बहिष्कृत है |

लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥2॥

भावार्थ:-(वे कहते हैं-) जो निषाद जाति का व्यक्ति लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीच माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषाद से अँकवार भरकर (हृदय से चिपटाकर) श्री रामचन्द्रजी के छोटे भाई भरतजी (आनंद और प्रेमवश) शरीर में पुलकावली से परिपूर्ण हो मिल रहे हैं॥2॥

निहितार्थ :- इस चौपाई से प्रमाणित है निषाद /मछुआ समुदाय प्राचीन काल से ही अछूत था और समाज एवं हिन्दू धर्म में अत्यंत नीच एवं अन्त्यज माना जाता था | अस्पर्श्यता के कारण निषाद की छाया तक से छू जाने पर हिन्दू धर्म के लोग अशुद्द होजाते थे | अतः स्पष्ट है हम अनुसूचित जाति के उस आरक्षण के वर्षों से पात्र है जो हमें सरकारें जानबूझ कर चमारों के भय से नहीं दे रही हैं ।

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥

भावार्थ:-फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्डवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो॥3॥

निहितार्थ :- केवट , जिसे तुलसी दास ने इसी स्थान पर यहाँ निषादराज भी कहा है , द्वारा वशिष्ट को दूर से ही अपनी जाति बताकर प्रणाम किया गया , क्योकि वह अछूत जाति का व्यक्ति था । किन्तु अज्ञानता वश भावनाओं में उन्होंने उसे गले से लगा लिया ।

* रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की भक्ति सुंदर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे- जगत में इसके ( केवट ) समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है?॥4॥

निहितार्थ :- वशिष्ठ जी द्वारा अछूत केवट को गले लगाया देख देवता कहने लगे कि स्वभाव ,लक्षण ,प्रकृति ,प्रवृति में पूरे विश्व में केवट के समान निपट (मूर्ख, अधम, अछूत , पतित, दलित ) कोई नहीं ,और विद्वता में वशिष्ठ से बढ़कर कोई नहीं । पता नहीं .....सरकारों को इससे बड़ा प्रमाण कहाँ मिलेगा ...हमारे अछूत और दलित होने का ।

दोहा :
* समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥195॥

भावार्थ:-मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी की महिमा को मन में देख (विचार) कर (अर्थात कहाँ तो मैं नीच जाति और नीच कर्म करने वाला जीव, और कहाँ अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी! पर उन्होंने मुझ जैसे नीच को भी अपनी अहैतु की कृपा वश अपना लिया- यह समझकर) जो रघुवीर श्री रामजी के चरणों का भजन नहीं करता, वह जगत में विधाता के द्वारा ठगा गया है॥195॥

निहितार्थ :- मछुआ समुदाय के पिछड़ेपन , दुर्दशा और प्रतिनिधित्व हीनता का संज्ञान लेकर सरकार को इसे अनुसूचित जाति घोषित कर तत्काल SC आरक्षण उपलब्ध करना चाहिए ।

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