निरे कुतर्कों को बौध्दिकता का जामा पहना कर महज अपने अहम के लिए करोड़ों गरीब मछुआरों के जीवन संघर्ष को सिर्फ रोटी की जिद्दोजहद समझने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के समक्ष सवाल के तो खड़े कर सकते हैं किन्तु जवाब के नाम पर मोर्चा छोड़कर भागने वाले जब समाज के अधिकारों मानसम्मान और भागेदारी की लड़ाई को यह कर नया रुख देना चाहते हैं कि पहले राष्ट्रीय पहचान तय कर लो.…… तो हंसी आती है ।
जिस समाज का इतिहास आर्य जातियों से भी पुराना हो , जिस समाज का इतिहास आर्यो के भगवानों से भी पूर्ववर्ती हो उसे पहचान के संकट में फँसाना उसके संघर्षों को कमजोर करने जैसा है । क्या हम पहचान के मोहताज है ? क्या विश्व में हमारी पहचान किसी से छिपी हैं ? हमारी सभ्यता और संस्कृति किसी टाइटिल या जातीय नाम की मोहताज है ? भगवान कहे जाने अवतारों की मदद करने वाला समाज क्या अपनी शिनाख्त के लिए आज अपना नया नाम रखेगा ?
जो लोग मछुआ समुदाय और निषाद संस्कृति को टाइटिलीय झगड़ों में पचड़े में डालकर हमारी पुरातन और प्रागैतिहासिक कालीन पहचान को नए शब्दाडंबरों में पिरोकर अपनी झेंप मिटाना चाहते हैं दरअसल वे बुद्धिजीविता के नाम पर बौद्धिक आतंक का सहारा लेकर मछुआ समुदाय के आरक्षण की लड़ाई को संवैधानिक रूप से कमजोर करना चाहते हैं और आरक्षण विरोधी चरित्र के पोषक हैं पक्षधर हैं और पहरेदार हैं ।
मछुआ समाज को कश्यप निषाद में , फिर कश्यप को धीमर कहार और कश्यप में , कश्यप को कश्यप राजपूत और झिम्मर में , फिर कश्यप राजपूत को राजपूत और डोगरा में बाँटने वाले लोग अपने महासुदृढ़ आर्थिक स्तर की तुलना उप्र मप्र और बिहार के गरीब केवट धीमर से क्यों करते हैं जिसकी जाति को अंग्रेजों ने चोर डकैत कहकर सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया । उनसे आपकी समानता समक्षता और समभाव कैसे हो सकता है ? निषाद को काला कलूटा और जंगली कहकर आप कैसे सामाजिक एकता ला सकते हो ?
आप राजपूत कहकर अपनी झेंप मिटा सकते हो लेकिन जिस मेहनतकश समाज को राजपूतों ने उजाड़ा लूटा और ठगा हो , शहर गाँव और बस्तियों से दूर बसने पर मजबूर किया गया हो वो राजपूत कैसे हो सकता है ?
हो सकता है पंजाब हरियाणा राजस्थान जैसे विकसित राज्यों के निवासी समाज बंधू सवर्णों और अर्थप्रधान सामाजिकता के कारण अपनी पहचान को नए आयामों में गढ़ कर अपने लिए नयी जमींन तैयार करते हैं लेकिन साथ ही वे करोड़ों वंचित शोषित वहिष्कृत उजड़े पिछड़े दबे कुचले मछुआरों द्वारा संघर्ष पूर्वक अपने संविधान सम्मत अधिकारों की तैयार जमीन को छीनने का काम भी करते है ।
मछुआ समुदाय के संघर्ष की निर्णायक बेला पर पहचान का संकट खड़ा करना अपने आस्तित्व को नकारने जैसा है ।अपने वर्षों के आंदोलन को अपने हाथों नष्ट करने जैसा है । आवश्यकता अपनी पहचान को ताल ठोक कर और मजबूत करने की है न कि पहचान को नकारने की……जैसा कि कुछ बुद्धिजीवी मित्र अभियान छेड़े हुए हैं ।
जिस समाज का इतिहास आर्य जातियों से भी पुराना हो , जिस समाज का इतिहास आर्यो के भगवानों से भी पूर्ववर्ती हो उसे पहचान के संकट में फँसाना उसके संघर्षों को कमजोर करने जैसा है । क्या हम पहचान के मोहताज है ? क्या विश्व में हमारी पहचान किसी से छिपी हैं ? हमारी सभ्यता और संस्कृति किसी टाइटिल या जातीय नाम की मोहताज है ? भगवान कहे जाने अवतारों की मदद करने वाला समाज क्या अपनी शिनाख्त के लिए आज अपना नया नाम रखेगा ?
जो लोग मछुआ समुदाय और निषाद संस्कृति को टाइटिलीय झगड़ों में पचड़े में डालकर हमारी पुरातन और प्रागैतिहासिक कालीन पहचान को नए शब्दाडंबरों में पिरोकर अपनी झेंप मिटाना चाहते हैं दरअसल वे बुद्धिजीविता के नाम पर बौद्धिक आतंक का सहारा लेकर मछुआ समुदाय के आरक्षण की लड़ाई को संवैधानिक रूप से कमजोर करना चाहते हैं और आरक्षण विरोधी चरित्र के पोषक हैं पक्षधर हैं और पहरेदार हैं ।
मछुआ समाज को कश्यप निषाद में , फिर कश्यप को धीमर कहार और कश्यप में , कश्यप को कश्यप राजपूत और झिम्मर में , फिर कश्यप राजपूत को राजपूत और डोगरा में बाँटने वाले लोग अपने महासुदृढ़ आर्थिक स्तर की तुलना उप्र मप्र और बिहार के गरीब केवट धीमर से क्यों करते हैं जिसकी जाति को अंग्रेजों ने चोर डकैत कहकर सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया । उनसे आपकी समानता समक्षता और समभाव कैसे हो सकता है ? निषाद को काला कलूटा और जंगली कहकर आप कैसे सामाजिक एकता ला सकते हो ?
आप राजपूत कहकर अपनी झेंप मिटा सकते हो लेकिन जिस मेहनतकश समाज को राजपूतों ने उजाड़ा लूटा और ठगा हो , शहर गाँव और बस्तियों से दूर बसने पर मजबूर किया गया हो वो राजपूत कैसे हो सकता है ?
हो सकता है पंजाब हरियाणा राजस्थान जैसे विकसित राज्यों के निवासी समाज बंधू सवर्णों और अर्थप्रधान सामाजिकता के कारण अपनी पहचान को नए आयामों में गढ़ कर अपने लिए नयी जमींन तैयार करते हैं लेकिन साथ ही वे करोड़ों वंचित शोषित वहिष्कृत उजड़े पिछड़े दबे कुचले मछुआरों द्वारा संघर्ष पूर्वक अपने संविधान सम्मत अधिकारों की तैयार जमीन को छीनने का काम भी करते है ।
मछुआ समुदाय के संघर्ष की निर्णायक बेला पर पहचान का संकट खड़ा करना अपने आस्तित्व को नकारने जैसा है ।अपने वर्षों के आंदोलन को अपने हाथों नष्ट करने जैसा है । आवश्यकता अपनी पहचान को ताल ठोक कर और मजबूत करने की है न कि पहचान को नकारने की……जैसा कि कुछ बुद्धिजीवी मित्र अभियान छेड़े हुए हैं ।