बुधवार, 5 जनवरी 2011
!! गुर्जर आरक्षण - आवश्यकता या राजनीति !!
राजस्थान में गुर्जर आरक्षण की आग पुनः भड़क चुकी है | अनुसूचित जनजाति के आरक्षण कोटे की मांग को लेकर गुर्जर समुदाय फिर से आक्रोशित है | कडकडाती ठण्ड में गुर्जर दिल्ली-मुंबई रेलवे ट्रैक पर बैठे अपनी मांगे मनवाने की जद्दोजहद में हैं | सार्वजनिक संपत्ति को भी निशाना बनाया गया और जाम लगाकर राजमार्गों की रफ़्तार थामने का भी प्रयास किया गया | पुलिसिया संघर्ष में अनेकों घायल हुए तो कई फिर जेल गए | सरकार द्वारा फिर वार्ता की पेशकश की गई है | फिलहाल सभी वार्ताएं बेनतीजा साबित हुई हैं |
दरअसल मामला इतना सीधा नहीं हैं जितना सरकारें समझती आई हैं | गुर्जरों के समकक्ष राजस्थान में एक और जाति है मीणा | मीणाओं का खान पान ,रहन सहन ,संस्कार, मानव शास्त्रीय व्यव्हार, शैक्षिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति गुर्जरों से कदापि भिन्न नहीं है लेकिन इसी जनजातीय आरक्षण के बूते मीणाओं का न केवल राजस्थान सरकार में अच्छा दबदबा है बल्कि सरकारी योजनाओं का संचालन करने वाले राजस्थान के प्रशासन में मीणाओं की खासी भरमार है | इतना ही नहीं जनजातीय कोटे पर अपनी बादशाहत की बदौलत मीणाओं ने केन्द्रीय सेवाओं के उच्च पदों पर भी अपना झंडा गाड़ रखा है | केवल जनजातीय आरक्षण की बदौलत आई इस यकायक क्रांति की चमक ने गुर्जरों को चौंधिया कर रख दिया | सामाजिक ताने बाने में परस्पर बुने और आपस में गुंथे दो समकक्षीय समुदायों की विकासात्मक प्रक्रिया इतनी विभेद पूर्ण होगी कि एक मलाई खाए और दूसरे के हाथ खाली बर्तन तक न आये, ये गुर्जरों ने सोचा भी न था | संवैधानिक व्यवस्था ही निसंदेह कहीं न कहीं दोषपूर्ण है |
डॉ. लोहिया ने कहा था -" समाजवादी विचारधारा की सामाजिक सहिष्णुता ही पोषक है " | और यही समाजवाद आज हमारे संविधान की आत्मा है | जब समाज से सहिष्णुता ही गायब हो जाएगी तो काहे का समाजवाद और कैसी संवैधानिक व्यवस्था ? गुर्जरों के आरक्षण का सर्वाधिक विरोध मीणा समाज द्वारा किया जाता रहा है | इसके पीछे मजेदार तर्क ये दिया जाता है कि गुर्जर अनूसूचित जनजाति के मानक पूरे नहीं करते | जब कि गुर्जर समुदाय जम्मू कश्मीर ,हिमाचल प्रदेश , उत्तराखंड व पंजाब सहित कई राज्यों में अनुसूचित जनजाति के रूप में घोषित है | इतना ही नहीं तत्कालीन केद्रीय वन मंत्री श्री नमो नारायण मीणा द्वारा गुर्जर आरक्षण का यह कर विरोध किया गया कि अगर गुर्जरों को जनजातीय आरक्षण दिया गया तो मीणा समाज प्रदेश सरकार को सबक सिखाएगा क्योकि ऐसा करने से मीणाओं का कोटा कम हो जायेगा | ऐसी घटिया सोच एक केन्द्रीय मंत्री जैसे जिम्मेदार ओहदे पर बैठा शख्स रखता है तो आम मीणा का नजरिया सोचा जा सकता है |
यही असहिष्णुता समाज में वैमनस्य का कारण बनती जा रही है जो समाजवादी व्यवस्था के लिए न केवल खतरे की घंटी है बल्कि समाज के उन कमज़ोर और उपेक्षित वर्गों के लिए चुनौती भी है जो आरक्षण के सहारे राष्ट्र की मुख्य धारा में आना चाहते हैं और शिक्षा एवं विकास के ज़रिये अपनी आजीविका में सुधार लाना चाहते हैं | अब आरक्षण कोई नया प्रयोग तो है नहीं, ना ही ये किसी ख़ास जाति या समाज की संपत्ति ,बपौती या जायदाद है जो एक ही समाज इसका फायदा ले और दूसरे यदि इस की मांग करें तो उन्हें नियम कानून पढ़ा कर टरका दिया जाये | दुनिया के १२० से ज्यादा मुल्कों में किसी न किसी रूप में आरक्षण लागू है | बहुसंख्यक दलित या पिछड़ों के सामने अल्पसंख्यक दलितों या पिछड़ों की उपेक्षा सरकारों के लिए अच्छा संकेत नहीं है | बहुसंख्यक दलित यदि ये सोचते हैं कि किसी अन्य जाति द्वारा कोटे में शामिल हो जाने से उनकी जाति का हिस्सा कम हो जायेगा तो ये बात आपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसी होगी क्योंकि आरक्षण से सबसे ज्यादा किसी का कोटा कम हुआ है तो सवर्णों का | अब दलित/पिछड़े खुद किसी समाज के आरक्षण का किस अधिकार से विरोध कर सकते हैं | और यदि दलित / पिछड़े ही एक दूसरे के आरक्षण का विरोध बंद नहीं करेंगे तो निश्चित ही एक दिन आरक्षण ख़त्म कर दिया जायेगा | वैसे भी यह व्यवस्था नितांत तात्कालिक एवं समीक्षात्मक है | बाबा साहेब डा० अम्बेडकर की आरक्षण परिकल्पना सम्पूर्ण दलित समुदाय के लिए थी न कि दो -चार जातियों के विकास के लिए |
कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में २३ मई २००८ को आरम्भ हुए इस आरक्षण आन्दोलन में जमकर सियासत भी हुयी | राजस्थान की तत्कालीन भाजपा सरकार में मंत्री श्री कालू लाल गुर्जर एवं विधायक प्रहलाद गुंजल ने आन्दोलन को सरकार के इशारे पर बाँट दिया | बँटे हुए गुर्जरों की अब मांगे भी अलग हो चुकी थीं | आधे गुर्जर अब जनजातीय कोटे की मांग छोड़ कर, मीणाओं के दबाब में आई वसुंधरा सरकार की पेशकश विशेष पिछड़ा वर्ग आरक्षण कोटा लेने को तैयार हो गए | जब कि इसी पिछड़े वर्ग की आरक्षण सूची में गुर्जर ३० सालों से हैं | किन्तु २००१ में पिछड़े वर्ग में जाटों के शामिल हो जाने से गुर्जरों के लिए बची खुची गुंजाइश भी जाती रही | २००४ के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले तत्कालीन बाजपेयी सरकार द्वारा गुर्जरों को जनजातीय दर्ज़ा देने का ऐलान भी किया गया था वो भी जयपुर जाकर | केन्द्र से भाजपा के सफाये के बाद गुर्जरों की प्रदेश भाजपा सरकार से ही आस बची थी | ये बात भी सच है कि गुर्जरों का विकास अनुसूचित जनजाति आरक्षण दिये बिना संभव नहीं है और वे इसके मानक भी पूरे करते हैं | किन्तु उनकी ये मांग जयपुर व नई दिल्ली से हर दफा खारिज कर दी गई | फलस्वरूप आन्दोलन की परिणिति हुयी|
इधर बैंसला के लोकसभा चुनाव लड़ने व करारी हार ने आन्दोलन को पूरी तरह राजनैतिक व धड़ेबाजी में बाँट दिया | हालांकि पूरे मामले में सचिन पायलट की चुप्पी रहस्यमय रही और उनकी सक्रियता भी उनके निर्वाचन क्षेत्र तक ही रही | यदि सचिन पायलट चाहते तो प्रदेश की गहलौत सरकार पर दबाब बना कर केंद्र सरकार को जनजातीय आरक्षण का प्रस्ताव भिजवा सकते थे और वहां से इसे मंज़ूरी भी दिला सकते थे लेकिन मीणा वोटों का कांग्रेस से छिटक जाने का डर भी था | अब लब्बोलुआब ये है कि बैंसला किसी भी सूरत कोई राह निकालना चाहते हैं ताकि बात रह जाये लेकिन धड़ेबाजी में बटें आन्दोलन और बिखरे हुए गुर्जरों की फिलहाल बात बनती नज़र नहीं आ रही |
कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए |
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ||
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Gurjaron ko Congress ke bahkaave mein nahin aana chahiye .
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