गुरुवार, 27 सितंबर 2012

क्या बसपा बदल रही है .......


विधान सभा चुनाव 2012 में पराजित बसपा फिलवक्त अपना घर चाक चौबंद करने में जुटी है | सवर्णों और खासकर ब्राह्मणों से विधान सभा चुनाव में धोखा खाई बसपा इस दफा पिछड़े वर्ग पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रही है ,खास तौर पर उन 17 अति पिछड़ी जातियों पर जिन्हें अनुसूचित जातियों का दर्जा आज नहीं तो कल अवश्य मिलना है | ऐसे में बसपा समय रहते इस वोट बैंक पर अन्य पार्टियों से पहले हाथ रख कर बढ़त लेना चाहती है | इसकी शुरुआत भी मायावती ने राम अचल राजभर को बसपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर कर दी है साथ ही लोक सभा टिकट बंटवारे में तमाशबीन कही जाने वाली जातियों को भी प्रतिनिधित्व देना आरम्भ कर दिया है | इतना ही नहीं अब तक कैडर बेस जाति (चमार समूह) के लिए आरक्षित बसपा जिला अध्यक्ष का पद भी कश्यप /निषाद /मछुआरों सहित इन्हीं अति पिछड़ों को देना शुरू कर दिया है जो बसपा के बदले स्वरुप को प्रतिबिंबित करता है |


आंवला ,गोरखपुर लोकसभा टिकट सहित संगठन में पद तो दिए हैं ,सबसे चौंकाने वाला टिकट शाहजहाँपुर SC लोकसभा क्षेत्र से स्व० वीरांगना फूलन देवी जी के पति श्री उम्मेद सिंह को दिया है | यानि मायावती मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार हो गयी हैं कि जब दिल्ली का मछुआरा SC में घोषित है तो यूपी का भी होना ही चाहिए अर्थात मायावती ने SC के लिए आरक्षित किसी वस्तु पर पहली बार चमार के अतिरिक्त किसी अन्य का दावा स्वीकार किया है | ये निसंदेह स्वाभाविक तो है ही प्रसंशनीय भी है | हालाँकि मायावती का एक चरित्र मछुआ समाज ने तब भी देखा था जब 2007 में सरकार बनाते ही पहली ही कैबिनेट मीटिंग में 17 अति पिछड़ी जातियों के प्रस्ताव को केंद्र से मूल रूप में वापस मंगाते हुए निरस्त कर दिया था । जिसके जख्म समाज में आज भी ताज़ा हैं लेकिन आज बसपा और मायावती का चिंतन बदल गया लगता है ।ये बदलाव यूं ही नहीं है, जातीय राजनीति की मंझी हुयी खिलाड़ी मायावती ने साढ़े तीन प्रतिशत के अंतर से विधान सभा चुनाव हारते ही सत्ता की लोभी जातियों के स्थान पर अपने सामाजिक बदलाव की बाट जोह रही जातियों को साथ में रख कर आगे बढ़ने का मन बनाया | सत्ता की लड़ाई में ये जातियां न सिर्फ भरोसे मंद साबित होंगी बल्कि इनकी राजनैतिक स्थिति वर्तमान समाजवादी सरकार के आचरण से भी तय होने जा रही है | छः माह बीतने के बाद भी समाजवादी सरकार ने आज तक 17 अति पिछड़ी जातियों के बारे कोई बयान तक नहीं दिया , केंद्र सरकार  को संस्तुत प्रस्ताव भेजना तो दूर रहा । इसके साथ ही आधा दर्जन निषाद/मछुआ सपा विधायकों को और शेष वरिष्ठ निषाद/मछुआ नेताओं को खाली बैठा कर कागजी घोड़े दौड़ा रही प्रदेश सरकार इन वर्गों की उपेक्षा का संकेत दे रही है । ऐसे में इन वर्गों में निराशा का माहौल भी व्याप्त होना स्वाभाविक है ।
सत्ता से वंचित खटिक, खतवे, गोढ़ी , गंगे ,गंगौत, गन्धर्व, खटवास, धींवर, चाई, चंद्रवंशी, तांती, तुरैहा, तियर, तियार, थारू, धानुक, नोनिया, लोनिया , लौनिया चौहान , कहार,  कुम्हार , नाई , नामशूद्र, प्रजापति, मांझी मझवार , बिन्द बेलदार , बियार, भास्कर, माली, मल्लाह, मारकंडे, भोटियारी, राजधोब, भर राजभर, राजवंशी, किसान, लोध, केवट, खुल्वट तथा वनचर जातियां एक जगह संगठित होकर मतदान कर दे तो राजनैतिक बदलाव निश्चित है | इसी बदलाव में इन वंचित जातियों का उत्थान भी छिपा है |  इनकी संख्या ३५-४० % है | परन्तु इनमे से कई जातियों का विधान सभा लोक सभा में प्रतिनिधित्व तक नहीं है | इन जातियों की एकता व संगठित शक्ति का राष्ट्रीय एवं राज्य की राजनीति में गहरा असर पड़ेगा ।

 क्या डॉ अम्बेडकर और कांसीराम जी के मिशन से भटक कर सवर्णों को गले लगा कर धोखा खा चुकी बसपा पुनः अपने एजेंडे पर आ रही है ?  
क्या बसपा बदल रही है.................. या आसन्न चुनाव को देख 17 अति पिछड़ी जातियों में बिखराव कर रही है .....ये एक बड़ा सवाल है इन जातियों के सामने ।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

...एक तो होना ही पड़ेगा !

           एक बार मैं बनारस गया तो गंगा में जल विहार का आनंद लेने के लिए नौका में जा बैठा | नाव खेने वालों से जब मैंने उनकी जाति पूछी तो एक ही परिवार के पांच लोग अपनी अलग अलग जाति बता रहे थे | किसी ने कहा वे मल्लाह है, किसी ने निषाद तो किसी ने केवट , कोई साहनी, कोई मांझी बता रहा था | वे सब इस पर भी सहमत थे कि वे सुरहिया और चाईं भी हैं | उन्हें अपने आपको बिन्द बेलदार से अलग नहीं मानने में भी कोई संकोच नहीं था | कश्यप ,कहार, धींवर भी उन्ही में से होने बताये | जाहिर है इस गंभीर विषय को कोई समाजशास्त्री या जानकार ही समझ सकता है , हाईस्कूल पास लेखपाल पटवारी नहीं | अतः जातिगत भ्रम होना लाजमी है |
           आज हमारे लोग जाति के कई नाम की जिस समस्या से जूझ रहे हैं , उस प्रकार की समस्या चमार जाति के सामने 1955 -56 में ही आ गई थी | तब चमार जाति 51 उपजातियों में बंटी थी और लोग अपने आपको भिन्न भिन्न नामों से बताते थे | किन्तु शर्मवश चमार नहीं कहते थे | जबकि नियमानुसार अनुसूचित जाति का लाभ केवल चमार वर्ग को था क्योकि SC सूची में चमार ही वर्णित था | फलस्वरूप दोहरे ,कुरील, जैसवार ,सहित 51 उपजातियों के लोग आरक्षण से वंचित होने लगे क्योकि उनकी पहचान चमार नाम से न हो कर अन्य नामों से थी |
             जब मामला गंभीर होगया और इनके जाति प्रमाणपत्र तक बनना बंद हो गए तो इन्होने सचिवालय ,जनगणना कार्यालय, गृहमंत्रालय और SC /ST आयोग में बैठे अपने आकाओं और भाई बिरादरों से समपर्क साधा | खटाखट आदेश जारी होते गए और बाकायदा गृहमंत्रालय ने एक सर्कुलर जारी कर स्पस्ट कर दिया कि चमार का तात्पर्य उसकी सभी उपजातियों से है | इस प्रकार पिप्पल, निम् , कर्दम, जैसल, जैसवार, जाटव, जटिया, गहरवार, अहिरवार, कुरील, रैदास, दोहर, दोहरे, डोहरा, डोहरे, चमकटा , भगत चमकटा , रोनिगर, रैगड़, रैगर ,रैह्गर,रायगर, भाम्बी , खालकाढ, चर्मकार, रैया, धोंसियार, डांबरे , उत्तराहा, दक्खिनाहा, नोना चमार , चमरमंगता, चमड़िया, चामगर, रोहित, रोहिदास, रविदास ,रुईदास , रविदासी, रामदसिया, रविदसिया, सतनामी , मोची , मूची, ऋषि, भैरवा, बैरवा, ढेड़, समगर , सागर, सगर, चंवर ,चम्बर, चुम्बर , धुसिया और झुसिया उपजातियां चमार जाति के अंतर्गत परिभाषित हो गयी | किन्तु इन लोगों ने इस संकट से हमेशा के लिए निबटने के लिए एक समझदारी का काम किया .......अपनी पहचान एक ही नाम से घोषित करने का निर्णय लिया | वो नाम चमार है | आज चमार खुल के कहता है कि मैं चमार हूँ |
             अब वक़्त आ गया है कि हमें भी एक नेता , एक नीति, एक नियत, एक नाम और एक प्लेटफार्म पर आकर अखिल भारतीय स्तर पर एक जातीय स्टेटस के लिए संघर्ष करना चाहिए |

शनिवार, 1 सितंबर 2012

लोध और मल्लाह अलग अलग जातियां

हमारे कुछ लोग लोध जाति को मल्लाह जाति से सम्बंधित बताते हैं और दोनों जातियों को विवाह सम्बन्ध द्वारा एक होने की सलाह देते हैं ।  लोध और मल्लाह दो अलग अलग जातियां हैं | लोध एक पारंपरिक कृषक जाति है जबकि मल्लाह / निषाद मूलतः शिकारी ,आखेटक, और नाविक जाति है ,साथ ही भूमिहीन भी | इस कारण लोध एक प्रथक जाति है और मछुआ संस्कृति से सर्वथा भिन्न है | हालांकि आगरा, फिरोजाबाद, कन्नोज कानपुर में कुछ निषाद परिवारों के लोध में शादी व्याह के उदाहरण हैं जो केवल उन्ही परिवारों में है समृद्ध, शिक्षित और विकसित है,गरीब नहीं
निषाद जातियों का मुख्य व्यवसाय कृषि कभी नहीं रहा | हो सकता है मजबूरी वश नदी ,पोखर तालाब सूख जाने के कारण कतिपय निषादों ने खेती शुरू कर दी हो लेकिन निषाद जातियों के मानवशास्त्री अध्ययन में उनके शिकारी , पक्षी आखेटक, मत्स्य आखेटक , सिंघाड़ा उत्पादक व खीरा ककड़ी उगाने का कार्य करना प्रमाणित हुआ है | जबकि लोध जाति जाट एवं कुर्मी की भाँति मुख्यतः कृषक जाति है , नाव चलाना तो दूर लोध ने आज तक मच्छली का शिकार नहीं किया | लोध जाति मुख्यत शाकाहारी है जबकि निषाद जातियां मूलत मांसाहारी | मछुआ समुदाय एक बहिष्कृत समाज है | आज भी इस जाति के लोगों के मकान बीच गाँव में न होकर गाँव के बाहरी हिस्सों में पाए गए हैं , ये तथ्य शोध में प्रमाणित हो चुका है | इसी कारण हमारे लोग अनूसूचित जाति के मानक पूरे करते पाए गए , जबकि लोध अपना सम्बन्ध लोध क्षत्रीय , लोध राजपूत से बताते हैं | दोनों वर्गों में समानता का प्रश्न ही नहीं उठता व निषाद संस्कृति से लोध जाति का प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध प्रमाणित नहीं होता |
जहाँ तक दोनों जातियों के एकीकरण की बात है तो ये मुख्यतः राजनैतिक विषय है | राजनेता अपना आधार बढ़ाने के लिए दूसरी जातियों में सम्बन्ध जोड़ने और जातीय आधार बढ़ाने के पक्षधर रहे हैं ,ये कदम सही हो सकता है | लेकिन जब एकीकरण की बात हो तो लोध ही क्यों........ समस्त पिछड़े वर्ग और दलित समाज को एक होना चाहिए | हमें सभी Husbandry जातियों जैसे शिकारी ,आखेटक ,पशुपालक ,गूजर ,गडरिया ,खटिक , चिड़ीमार , मछुआरा, बहेलिया आदि जातियों को पहले एकजुट होना चाहिए , लोध ही क्यों ......?

बिना सामाजिक आन्दोलन के राजनैतिक आन्दोलन बेकार


हमें सामाजिक आन्दोलन के सहारे राजनैतिक आन्दोलन तैयार करना होगा | बिना सामाजिक आन्दोलन के राजनैतिक आन्दोलन निष्प्रभावी ही रहेगा | चमारों ने पहले सामाजिक आन्दोलन चलाया और शिक्षा ग्रहण करके शासन प्रशासन में जम गए | शासन प्रशासन में ऊपर तक जमे चमार राजनैतिक आन्दोलन चलाने वालों की रीढ़ बन गए | और सत्ता हासिल कर स्वयं को रूलिंग कास्ट आफ इंडिया तक कहने लगे | जब इसके ठीक उलट हमारे मछुआ भाई बिना पढ़े ही नेतागर्दी करने लगे , और राजनैतिक आन्दोलन चलाकर कुर्सी के दिवास्वप्न देखने लगे | जबकि समाज में शिक्षा का प्रतिशत 2 % रहगया | अब बिना जागरूक हुए समाज तो बहकना ही था सो खेमों और पार्टियों में बँटता चला गया और अपनी ताक़त को क्षीण करता चला गया |
आवश्यकता इस बात की है के पहले हम अपने सामाजिक अधिकार प्राप्त करें तब राजसत्ता की ओर उन्मुख हों अन्यथा अपने और दुसरे नेताओं के हाथों इस्तेमाल होते रहेंगे |