मंगलवार, 1 जनवरी 2013

हमारे पुरखों ने बताया था ........

हमारे पुरखों ने बताया कि तोप - तलवारों के बिना सिर्फ तीर कमान और पत्थरों से भी युद्ध जीते जा सकते हैं। उन्होने बताया कि पुलों के बिना भी भयंकर नदियां पार की जा सकती हैं। उनके बुलंद इरादों ने हमें बताया वृक्ष के एक तने से बनी नौका के सहारे महासागर को परस्त किया जा सकता है । उन्ही के संकल्प से हमने जाना कि नंगे पैरों से कांटो भरी सख्त जमीन पर भी महान यात्रायें संभव हैं। हमारे पुरखों ने बताया कि हिम्मत और हुनर हो तो जंगलों में भी सभ्यतायें फलफूल सकती हैं। हमारे पुरखों ने दुनिया को दिखलाया कि सूत के एक धागे से बने जाल से बड़ी से बड़ी मछली का शिकार संभव हैं । हमारे पूर्वजों ने दुनिया को दिखलाया यदि कंधे मजबूत हो तो दुनिया को इधर से उधर शिफ्ट भी किया जा सकता है । हमारे पुरखों ने सिद्ध किया कि यदि उपजाऊ भूमि न भी हो तो भी पथरीली और रेतीली बंजर जमीन पर फसलें (खीरा - ककड़ी, तरबूज खरबूज की ) उगाई जा सकती है । हमारे पुरखों की वैज्ञानिक सोच ने सिंगाड़ा उगा कर जल में भी कृषि कर दिखाई । हमारे पुरखों के पुरुषार्थ ने प्रमाणित कर दिया कि मछुआ समाज की ताक़त के सामने सात समुन्दरों की अस्मिता और अस्तित्व के भी कोई मायने नहीं है । नदियों के किनारे बिखरे पड़े हमारे सैकड़ों भग्नावशेष हमारे पुरखों के जयघोष की कथा स्वयं कहते हैं ।
आज हमारे पास नदियों पर पुल हैं लेकिन नदियों के वेग पर जीत हासिल करने वाले सीने नहीं हैं , रहने के लिए घर हैं, लेकिन घर बचाने के लिए लड़ने का हौसला नहीं है। चलने के लिए अच्छी सड़कें और जूते हैं पर लंबी यात्राओं की न जुर्रत हैं और न यात्री । पिछले 50 सालों में निषाद यदि पराजित हुए हैं तो किसी और से नहीं खुद से पराजित हुए हैं। क्या हम पराजयों के इस अनवरत सिलसिले को तोड़ देंगे हैं? क्या हम अपने गौरवशाली अतीत से शिक्षा लेंगे ? क्या हम निहत्थे होकर भी उस युद्ध के लिए तैयार हैं जो एक जाति के रुप में हमारे अस्त्तिव के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है।
 आइये , सामाजिक चितन के इस शिविर में एक निष्क्रय एवं मौन समर्थन न दें  अपितु कुछ बोलें ...........केवल बोलें नहीं बल्कि कुछ करें। बारुद की तरह ऐसे भड़कें कि आपकी चिनगारियां बहुत दूर से दिखें भी और बहुत दूर तक सुनी भी जाएँ ।

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