रविवार, 10 मार्च 2013

द्रोण , तुम मरे नहीं,

द्रोण ,
तुम मरे नहीं,
आज भी जिन्दा हो ।
कुत्ते की तरह ,
जातिगंध सूंघते टाइटिल में,
आज भी कर रहे हो निषाद प्रतिभाओं का दमन ।
सत्ता के नजदीक रहने की चाह ,
निरंतर कटवा रही है तुमसे आज भी अंगूठे ।
गुरुओं का इतिहास कलंकित कर ,
आज भी गूंज रहा है तुम्हारा अठ्ठाहस ,
और तुम आज भी बने हुए हो सम्मानित ।
लेकिन भूल रहे हो तुम ,
बेइमान गुरु का पुत्र कभी पारंगत नहीं होता ,
अश्वत्थामा की तरह आज भी आवारा घूमता है ,
और कटवा कर छोड़ता है नाक ,
बदले में अंगूठे के ।

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