रविवार, 10 मार्च 2013

मैं क्यों मनाऊँ गणतंत्र ?

मैं क्यों मनाऊँ गणतंत्र ?
न तो हुयी मेरी गणना ,
किसी दौर में कभी ,
और न किसी तंत्र ने ,
समझा मुझे अपना हिस्सा ।
मैं क्यों गीत गाऊँ,
संविधान के ,
जो पल में ,
बदल दिया जाता है औरों के लिए ।
मैं और मेरे लोग ,
बदलाव की चिठ्ठी लिए,
दौड़ते रहे दफ्तर दफ्तर ,
फांकते रहे धूल संसदीय गलियारों की,
और बोलते रहे जिन्दाबाद,
उन बेजमीर मुर्दा लोगों की,
जिन्होंने गणतंत्र के नाम की ,
तोड़ी हैं बस रोटियाँ ही आज तक ।
मेरे हिस्से की धुप,
बना दी गयी जीनत ,
जिनके आँगन की ,
और मुझे पकड़ा दिए गए,
चंद लड्डू ,
बदले में ,
गणतन्त्र के नाम पर ।

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