रविवार, 24 फ़रवरी 2013

नदी बचेगी .....निषाद बचेगा


नदियों ने बड़ी बड़ी संस्कृतियों को जन्म दिया है । इसलिए विश्व की सभी महान सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुयी है । भारतीय संस्कृति में तीर्थ का बड़ा महत्त्व है और प्रायः सभी तीर्थ जल के बिना अधूरे हैं । अतः सभी प्रमुख तीर्थों की स्थापना नदियों के किनारे ही है या कम से कम किसी न किसी रूप में वहां जल की उपस्थिति अनिवार्य समझी गयी है, चाहे वह स्रोत रूप में हो अथवा ताल / सरोवर रूप में । भारतीय तीर्थ सदैव जल प्रधान रहे हैं।
      मछुआ संस्कृति का विकास भी नदियों के किनारे ही हुआ । सभी प्रमुख नदियों / पोखरों और सरोवरों के किनारे हमारी महान निषाद संस्कृति और परम्परा के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं । किन्तु आज हमारी महान सभ्यता और संस्कृति का सदाजयघोष करने वाली समस्त नदियाँ घोर जल प्रदूषण से पटी पड़ी है । जल प्रदूषण का सीधा सम्बन्ध जल श्रमिकों से होता है उनके धंधे रोजगार से होता हैं । जब हमारी भाग्य रेखा समझी जाने वाली पुण्य सलिलायें ही कुंठित होंगी ..प्रदूषित होंगी तो निषाद कहाँ से संपन्न होगा ? सदियों से लोगों के पाप बहाकर ले जाने वाली सदानीरा कलकलायें या तो अपनी गति को थाम कर सूख चुकी हैं या मात्र मानवीय एवं औद्योगिक अपशिष्टों की संवाहक भर होकर रह गयी है ।गरीबी ,बेकारी और कुपोषण से ग्रस्त नदी संस्कृति के मानने वाले और नितांत नदियों पर आधारित अपनी आजीविका को जल प्रदूषण के जरिये खो देने वालों का गुनाहगार कौन है ? बढ़ते जल प्रदूषण ने मछुआ जातियों को प्रतिष्ठित पारंपरिक धंधे छोड़ने को विवश किया है। औद्योगिककरण के नाम पर हजारों करोड़ डकारने वाली पूंजीपति और बदले में अपना अजैविक अपशिष्ट नदियों में प्रवाहित कर मछुआ समुदाय को निर्धन बनाकर नारकीय जीवन जीने को मजबूर करने वालों को ये हक किसने दिया ? पीड़ित निषादों के पुनर्वास की क्या व्यवस्था है ?
मैं घोषणा पूर्वक कह सकता हूँ कि आज भारत की किसी भी नदी का जल सीधे सीधे पीने योग्य नहीं हैं । मेरे गोकुल भ्रमण के दौरान मात्र 50 रूपये की मजदूरी के लिए दो मल्लाह एक दूसरे से लड़ने भिड़ने को तैयार हो गए। बात सिर्फ इतनी सी थी कि जिसका नंबर था मैंने उससे चलने की बात नहीं की । नाव तैरती थी लेकिन मेरा दिल डूबता उतराता था । दोपहर तीन बजे बोहनी (पहले ग्राहक से प्राप्त रूपये ) तक को तरसने वाला समाज , राष्ट्र की मुख्य धारा में कैसे आएगा ,ये कोई छोटा सवाल नहीं है भाई ।
       यमुना से उठती भयंकर सड़ांध युक्त दुर्गन्ध से सांस रुकी सी जाती थी , नौका में बैठना भी दूभर हुआ जाता था । जी हाँ ! ये वही यमुना थी जिसका पानी पीकर बड़े बड़े निषाद नेता आगे बढ़े । ये वही यमुना थी जिसकी तमाम यादें फूलन देवी से जुडी थी । ये वही यमुना थी जो निषाद दिग्गज जमुना प्रसाद की याद दिलाती थी । ये वही यमुना थी जो उत्तर भारत में सबसे पहले दिल्ली में मल्लाहों की जननी थी। ये वही यमुना थी जिसके बीहड़ में निषाद बागियों को संरक्षण मिला । ये वही यमुना थी जिसका इतिहास निषादों के साथ साथ चला । ये वही फलप्रदा यमुना थी कि जिसके उदगम तक मैं झाँक आया था । ये वही यमुना थी कि जिसका यमनोत्री में इतना मीठा और शीतल जल था कि मैंने इतना अच्छा जल जीवन में कभी नहीं पिया और किसी नदी का इतना निर्मल जल हो ही नहीं सकता।
क्या ये वही यमुना थी ?

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

कांग्रेस पुनः छेड़ सकती है रेणके आयोग का राग


सम्पूर्ण भारत में 193 ऐसी राष्ट्रभक्त जातियां रही हैं जिनमे मल्लाह ,केवट ,निषाद ,बिन्द ,धीवर ,डलेराकहार , रायसिख ,महातम ,बंजारा , बाजीगर ,सिकलीगर , नालबंध , सांसी, भेदकूट , छड़ा , भांतु , भाट , नट ,पाल ,गडरिया, बघेल ,लोहार , डोम ,बावरिया ,राबरी ,गंडीला , गाडियालोहार, जंगमजोगी ,नाथ,बंगाली,अहेरिया,बहेलिया नायक,सपेला,सपेरा, पारिधि ,सिंघिकाट ,कुचबन्ध,  गिहार अथवा कंजड आदि जो विमुक्त या घूमंतू जातियां कहलाती हैं और  Criminal Law Amendment Act 1871 के अनुसार अपराधी जातियां घोषित की गयी थीं । 1871 से लेकर 31 अगस्त 1952 तक ये जातियां अंग्रेजों के बनाये इसी काले कानून का शिकार रहीं और जरायम पेशा का नाम लिए बदनामी की जिन्दगी जीती रहीं । इन जातियों को दूसरे  गावों या शहरों में बसने की इजाजत नहीं थी , अपनी मर्जी का धंधा करने की अनुमति नहीं थी और तो और न्यायालय में भी इन जातियों की सुनवाई नहीं थी । आजाद भारत भी यह जातियां 5 वर्ष 16 दिन भारत वासियों की गुलाम बनी रहीं और
31 अगस्त 1952 को एक सरकारी आदेश के तहत आजाद हुयीं । उस दिन से इन जातियों को विमुक्त जातियों की संज्ञा दी गयी । 81 वर्ष की सरकारी गुलामी और सैकड़ों वर्षों की सामाजिक गुलामी के चलते ये जातियां शैक्षणिक , सामाजिक , आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक रूप से पिछड़ गयीं और आज भी दुनिया की तरक्की से दूर यह जातियां दूसरी जातियों से 64 साल पीछे हैं ।  इन जातियों की आबादी 15 करोड़ से भी अधिक है लेकिन इन जातियों का देश की विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका में कोई समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है , थोडा बहुत जो है भी , तो वो न के बराबर है । आज भी इन जातियों के लोग अशिक्षित ,बेरोजगार, बेकार, बेजार ,बेघर और बेइज्जत हैं और खानाबदोश जिन्दगी जीने को अभिशप्त हैं । इस समाज की तरक्की और खुश हाली के लिए केंद्र सरकार ने 2006 में एक कमीशन बनाया जो रेणके आयोग के नाम से जाना जाता है । इसे राष्ट्रीय विमुक्त/ घूमंतू /अर्ध घूमंतू जनजाति आयोग भी कहा जाता है जिसके अध्यक्ष /चैयरमैन श्री बाल कृष्ण रेणके हैं । इस कमीशन ने केंद्र सरकार को 2008 में अपनी सिफारिशें सौंपी । अत्यंत खेदजनक है कि 5 वर्ष बीतने के बाद भी इस केंद्र की कांग्रेस सरकार रेणके कमीशन की सिफारिशें लागू नहीं कर पाई । 
वास्तव में इस कमीशन की आड़ में केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भेजे गए 2005  में 17 जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने के प्रस्ताव को ठन्डे वस्ते में डालने का कार्य किया। और ये सन्देश देने का कुप्रयास किया कि सिर्फ 17 नहीं बल्कि 193 जातियों का व्यापक हित सोचा जा रहा है , चूंकि ये जातियां बहुत कम संख्यां में हैं, नेतृत्व शून्यप्राय हैं और बिखरी हुयी हैं अतः इन्हें राजनैतिक रूप से एकत्र कर पाना असंभव कार्य है । इस प्रकार प्रस्तावों और आयोगों के ढेर पर बैठ कर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने इन जातियां का बहुत बड़ा अहित किया है ।
अब फिर 17 जातियों का उत्तर प्रदेश सरकार का प्रस्ताव केंद्र सरकार पर पहुँच गया है । बहुत संभव है कि इसे पुनः दबाने के लिए मक्कारी और अय्यारी की खाल ओढे केंद्र में बैठी कांग्रेस फिर से रेणके आयोग का शगूफा छोड़ दे । 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

पहले संघ बनाओ फिर ख्वाब देखो !

हम चाहते तो सब कुछ हैं , लेकिन अपने फटे हुये नेकर पर भी गौर नहीं करना चाहते । हमारे युवा क्रांति की बात करते है लेकिन सैकड़ों जातियों और उपजातियों में बिखरे मछुआ समाज को एक जुट रखने पर मौन हो जाते है । मोदी के नाम पर सब एक होने तैयार हैं लेकिन आरक्षण के नाम पर अपने निषाद ही बंटे हुए हैं । हमारे बुजुर्ग जाति और उपजातियां तोड़कर व्याह /शादी सम्बन्ध बनाने की बात करते करते करते बूढ़े हो गए लेकिन इस संभव कार्य को अंजाम नहीं दे पाए । हमारे नौजवान जाति बताने की शर्म के चलते अपने अधिकारों से ही मुंह चुराते नजर आये कि कहीं फर्जी राजपूती शान की कलई न खुल जाए ।
हमारे नेता पार्टियों के प्रवक्ता भर होकर रह गए । पार्टी लाइन से हटकर कहने तक की हिमाकत नहीं जुटा पाए । समाज का विरोध सरकारों में होता रहा और नेतागण पार्टी की नीतियों का बखान करते रहे । समाज की राजनीति नेताओं का निजी स्वार्थ पूरा करने का जरिया बन गयी ।
हमारे लोग अधिकार तो चाहते हैं , लेकिन घर बैठ कर । चारपाई में लेटे लेटे ...रजाई ओढ़कर हक चाहता है मछुआ समाज । मुझे तो लगता है ये समाज सड़कों पे उतरने से डरता है, घबराता है , भय खाता है । कहीं मुकदमा दर्ज न हो जाए । एक चमार ने मुझसे कहा था "तुम्हारे लोग कुछ नहीं कर पाए , बस दारू पीते रहे और तुम्हारी औरतें काम करती रही " । मैं चाहते हुए भी प्रतिरोध न कर सका , उसका जातीय विकास अहम् बनकर बरस रहा था ।
स्वाभिमान किसी पाठशाला में नहीं सिखाया जाता । यह एक संस्कार है , चाह है , जीवन क्रम है । स्वाभिमानी व्यक्ति आंच आने पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है और तो और कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी प्रतिकूल बात पर पलट कर जवाब जरूर देता है । लेकिन जो समाज झूठन खाकर बड़ा हुआ हो उससे बदला, विरोध और विद्रोह की आशा करना व्यर्थ ही है । लिखना तो नहीं चाहता लेकिन मजबूर हूँ ...अपनी बात के समर्थन में तथ्य तो देना ही पड़ेगा ....शहरी क्षेत्रों में सवर्णों के झूठे बर्तन माँज कर बड़ा हुआ यह समाज उल्टा हमारे मुंह तो लग सकता है , हमारा विरोध तो कर सकता हैं लेकिन किसी और का सामना करने का  इसमें नहीं । हम साठ बरसों में अपने ही लोगों से पराजित हुए हैं । टोकने पर मुंह जोर लोग कहते हैं .....हम तो वो चीज खाते हैं जो तुम भी क्या खाओगे । हमारे रात के खाने में चार सब्जी , हलवा ,पूड़ी , लम्बे लम्बे बांसमती के चावल होते हैं , सलाद के साथ । हमारे घर में पाँच पांच घरों का बचा हुआ खाना आता है । पत्नी से सवर्णों की झूठन घर लाकर स्वाद और लज्जत के साथ खाने वाला समाज विरोध आवाज कैसे उठाएगा ? जिसकी समाज में पत्नी घरों में काम करेगी उस समाज से शराब और जुआ छुडाना ....विरोध के लिए तैयार करना ....नामुमकिन सा लगता है ।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

नया नेतृत्व कैसे मिले ?

समाज के नेतृत्व के सवाल पर सब चुप हो जाते है ,

युवा कहता है - मैं बेरोजगार हूँ , मुझे कैरियर बनाना है , पढ़ना है , समाज के विषय में और लोग सोंचे ।
सरकारी नौकरी वाला कहता है - मैं सर्विस रूल से बँधा हूँ , खुलकर सामने नहीं आ सकता । मुझे जाने दो ।
प्राइवेट नौकरी वाला कहता है - पूरा समय नौकरी में ही निकल जाता है , समाज के लिए कहाँ से समय निकालूं ।
दुकानदार कहता है - दूकान बंद करके जाऊँगा तो धंधा चौपट हो जायेगा ।
व्यापारी कहता है - रुपया दे सकता हूँ लेकिन समय नहीं । 100 रुपया देगा और 500 लोगों से कहेगा कि मैंने चन्दा दिया है ।
रिटायर्ड अधिकारी कर्मचारी कहता है - शुगर का मरीज हूँ ,हर आधे घंटे में पेशाब करना पड़ता है , हार्ट का मरीज हूँ दौड़ भाग नहीं कर सकता । घर बैठे राय दे सकता हूँ , पैसा तो अब रहा ही नहीं ।
किसान और मजदूर अशिक्षित और कम संसाधनों की वजह से मजबूर हो जाते हैं ।
ऐसे में समाज को नया नेतृत्व कैसे मिले ?
या ऐसे में उसी बैरी पिया पर फिर दिल न लाया जाए तो क्या किया जाए ?

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

अरे भाई ! हमें भी जानकारी है मगर ....

प्रायः अधिकारी लोग मछुआ जातियों के बुद्धिजीवियों को बुद्धूजीवी समझते है और आरक्षण के मुआमले में हमारे लोगों को कानून पढा कर खामोश कर देना चाहते है । सत्ता के गलियारों में बैठे फाइलों का ढेर लगाए बैठे वे अधिकारी जो SC आरक्षण की बदौलत ही उच्च पदों पर आसीन है ...रोड़े अटकाते आये हैं । वे हर बार भूल जाते हैं कि 62 साल से वे जिस आरक्षण की रोटी तोड़ रहे हैं उस पर मछुआ समुदाय का भी उनके समान अधिकार है । हमें बेवकूफ़ समझने वाले जान लें .....हमने E J Kitts को पढ़ा है , हमने J N Bhattacharya को पढ़ा है , हमने M A Sheering को पढ़ा है । हमने H A Rose को पढ़ा है , हमने Blunt को समझा है , हमने  E T Atkinson को जाना है । हमने Denzil Ibbetson को पढ़ा है, हमने E D Maclagan को पढ़ा है, हमने H C Conybeare को पढ़ा है , हमने C H Brone को पढ़ा है, हमने H R Nevill को पढ़ा है, हमने W Crook को रट रखा है । हमने Risley को पढ़ा है ,हमने G S Ghurye को पढ़ा है । हमने R V Russel & Heera Lal को पढ़ा है ,हमने W C Abel को पढ़ा है इतना ही नहीं हमने A C Turner को भी खोज निकाला है।
हमने छेदी लाल साथी को संस्तुतियों सहित पढ़ा है , हमें डॉ बाबा साहब अंबेडकर के सम्पूर्ण वांग्मय को भी  पढ़ा है । इतना ही नहीं हमने 1891, 1901 , 1911, 1931 , 1951, 1961 ,1971, 1981 ,1991, 2001 की जनगणना रिपोर्टों को भी ध्यान से पढ़ा है ।
हमें भैया राम मुंडा बनाम अनिरुद्ध पटार 1971 , नारायण बेहरा बनाम उडीसा राज्य 1978 , शिवपूजन प्रसाद बनाम उ0प्र0 सरकार 1980 सहित राधेश्याम बनाम दिल्ली सरकार जैसे ऐतिहासिक नजीर बने सर्वोच्च / उच्च न्यायालयों के निर्णयों की भी अच्छी जानकारी है । इतने नाम 62 साल से आरक्षण की रोटी तोड़ रहा कोई SC अधिकारी गिना नहीं पायेगा .....अजी ! गिनाना तो दूर ...उसने नाम सुने तक नहीं होंगे । फिर हमारी फ़ाइल को आपत्तियां लगाकर रोकना और हमारे समाज को 62 सालों से संवैधानिक अधिकारों से वंचित करते रहना क्या देशदोह नहीं ? क्या ये मानवता के विरुद्ध षड्यंत्र नहीं ? क्या ये भद्दा मजाक नहीं ? क्या ये जिन्दा भाई भतीजा वाद नहीं ? क्या ये पद का दुरूपयोग नहीं ?
हमारे पास 1879 से लेकर 2012 तक के दस्तावेज मौजूद हैं क्योकि हमारे यहाँ दुनिया सबसे नायाब खजाना विश्व प्रसिद्द रजा लाइब्रेरी हैं । लेकिन इतना सब होने के बावजूद हम कमजोर है । कारण ........ हमारे लोग सोये हैं , संगठित नहीं हैं , अधिकारों की आवश्यकता को आज भी जान नहीं पा रहे है । अशिक्षा ,अन्धविश्वास और नशे के जाल में फंसे है । जो पढ़ लिख गए वे समाज के प्रति अपने दायित्वों को तिलांजलि दे चुके हैं ।

समय करवट ले रहा है .....2013/ 2014 का लोकसभा चुनाव दस्तक दे रहा है ...यदि मछुआ समुदाय ने अतीत से सबक सीखा और राजनैतिक शक्ति को संचित कर लिया तो चुनाव पूर्व ही सत्ता में बैठी लालची पार्टियाँ आपके आगे झुक जायेगी ।