शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

पहले संघ बनाओ फिर ख्वाब देखो !

हम चाहते तो सब कुछ हैं , लेकिन अपने फटे हुये नेकर पर भी गौर नहीं करना चाहते । हमारे युवा क्रांति की बात करते है लेकिन सैकड़ों जातियों और उपजातियों में बिखरे मछुआ समाज को एक जुट रखने पर मौन हो जाते है । मोदी के नाम पर सब एक होने तैयार हैं लेकिन आरक्षण के नाम पर अपने निषाद ही बंटे हुए हैं । हमारे बुजुर्ग जाति और उपजातियां तोड़कर व्याह /शादी सम्बन्ध बनाने की बात करते करते करते बूढ़े हो गए लेकिन इस संभव कार्य को अंजाम नहीं दे पाए । हमारे नौजवान जाति बताने की शर्म के चलते अपने अधिकारों से ही मुंह चुराते नजर आये कि कहीं फर्जी राजपूती शान की कलई न खुल जाए ।
हमारे नेता पार्टियों के प्रवक्ता भर होकर रह गए । पार्टी लाइन से हटकर कहने तक की हिमाकत नहीं जुटा पाए । समाज का विरोध सरकारों में होता रहा और नेतागण पार्टी की नीतियों का बखान करते रहे । समाज की राजनीति नेताओं का निजी स्वार्थ पूरा करने का जरिया बन गयी ।
हमारे लोग अधिकार तो चाहते हैं , लेकिन घर बैठ कर । चारपाई में लेटे लेटे ...रजाई ओढ़कर हक चाहता है मछुआ समाज । मुझे तो लगता है ये समाज सड़कों पे उतरने से डरता है, घबराता है , भय खाता है । कहीं मुकदमा दर्ज न हो जाए । एक चमार ने मुझसे कहा था "तुम्हारे लोग कुछ नहीं कर पाए , बस दारू पीते रहे और तुम्हारी औरतें काम करती रही " । मैं चाहते हुए भी प्रतिरोध न कर सका , उसका जातीय विकास अहम् बनकर बरस रहा था ।
स्वाभिमान किसी पाठशाला में नहीं सिखाया जाता । यह एक संस्कार है , चाह है , जीवन क्रम है । स्वाभिमानी व्यक्ति आंच आने पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है और तो और कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी प्रतिकूल बात पर पलट कर जवाब जरूर देता है । लेकिन जो समाज झूठन खाकर बड़ा हुआ हो उससे बदला, विरोध और विद्रोह की आशा करना व्यर्थ ही है । लिखना तो नहीं चाहता लेकिन मजबूर हूँ ...अपनी बात के समर्थन में तथ्य तो देना ही पड़ेगा ....शहरी क्षेत्रों में सवर्णों के झूठे बर्तन माँज कर बड़ा हुआ यह समाज उल्टा हमारे मुंह तो लग सकता है , हमारा विरोध तो कर सकता हैं लेकिन किसी और का सामना करने का  इसमें नहीं । हम साठ बरसों में अपने ही लोगों से पराजित हुए हैं । टोकने पर मुंह जोर लोग कहते हैं .....हम तो वो चीज खाते हैं जो तुम भी क्या खाओगे । हमारे रात के खाने में चार सब्जी , हलवा ,पूड़ी , लम्बे लम्बे बांसमती के चावल होते हैं , सलाद के साथ । हमारे घर में पाँच पांच घरों का बचा हुआ खाना आता है । पत्नी से सवर्णों की झूठन घर लाकर स्वाद और लज्जत के साथ खाने वाला समाज विरोध आवाज कैसे उठाएगा ? जिसकी समाज में पत्नी घरों में काम करेगी उस समाज से शराब और जुआ छुडाना ....विरोध के लिए तैयार करना ....नामुमकिन सा लगता है ।

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