आदि कालीन भारत का मूल निवासी समाज विदेशी आक्रान्ताओं का सदैव शिकार हुआ और विदेशी आक्रमणकारियों के हमले से यहाँ की मूल निवासी जातियों की संस्कृति , भाषा, कला ,साहित्य , वेशभूषा ,बर्तन ,भवन निर्माण कला और संगीत तक प्रभावित होते गए। आर्यों के हमले से लेकर शक ,हूण, मंगोल ,मलेच्छ , यवन और अंग्रेजों तक ने हमारी संस्कृति को न केवल प्रभावित किया बल्कि उसे बदल भी दिया
विदेशी लोगों के आने पर सबसे पहला परिवर्तन बोली पर पड़ा। नई भाषा की वजह से लोगों के उच्चारण बदलते गए और नए शब्दों का चलन समाज में बढ़ गया फलस्वरुप एक ही शब्द के कई समानार्थी ,समवाची अथवा पर्यायवाची विकसित होते गए। बाद में उनके रूप और भी ज्यादा बिगड़ने लगे और अपभ्रंशों की भरमार होती गयी।
यहीं से मछुआ जातियों के नामकरण में मल्लाह , कहार जैसे विदेशी शब्द प्रचलन में आये जो हमारी मूलभूत निषाद संस्कृति के प्राचीन नामों, जिनमे धीवर, कैवर्त , केवट, मांझी, मछुआ प्रमुख थे , पर भारी पड़ते गए और मूल नामों में समाहित होने के बजाय उन्हें परिभाषित कर उनका प्रतिनिधित्व करने लगे। कालांतर में इनमे शिक्षित-अशिक्षित,ग्रामीण -नगरीय, परिष्कृत -देशज ,तत्सम -तद्भव के विभेद भी सामने आते गए और मछुआ समाज लगभग सौ नए नामों से अपनी पहचान गढ़ता गया। वास्तव में समाज के ये नए नाम भारत के बदलते नेतृत्व की भाषा के अनुसार ही ज्यादा प्रचलित हुए।
बाद में विषम पारिस्थैतिक एवं आर्थिक परिस्थितियोंवश परम्परागत व्यवसायों के बंटवारे अथवा आजीविका हेतु नए रोजगार के साधन अपनाने के कारण भी मछुआ समाज को नए नामों से जाना गया। हालाँकि इन नए नामों का परिवर्तन भी समाज पर पड़ा और समाज में बदलाव भी द्रष्टिगोचर हुआ | कहीं नए नामों के फलस्वरूप स्थितिजन्य सामाजिक बदलाव देखा गया तो कहीं सामाजिक स्तरोन्न्यन नए नामकरण की वजह बना | निरंतर परिवर्तनशील भारतीय सामाजिक व्यवस्था में समाज के हर स्तर में परिवर्तन देखे गए जिसकारण जातियों के बड़े समूह छोटे समूहों में विभक्त होते गए और हर बार एक नए नाम के साथ स्वतंत्र पहचान बनाते गए। उपजातियाँ विकसित होने लगी और मूल जातियों से प्रथक आस्तित्व बनाती गयीं। इसके दो कारण रहे ,
1 अस्पर्शता यानि अन्त्यज जातियों के घृणित पेशेजनित लोकव्यवहार सम्बन्धी निर्योग्यता।
2 औद्योगिककरण के फलस्वरूप मूल आजीविका में आये परिवर्तन।
अब तक गोत्रहीन कहे जाने वाले समाज भी अब अपना गोत्र दूंढ लाये और समाज के नए नामकरणों की दिशा देखादेखी तय होने लगी
विदेशी लोगों के आने पर सबसे पहला परिवर्तन बोली पर पड़ा। नई भाषा की वजह से लोगों के उच्चारण बदलते गए और नए शब्दों का चलन समाज में बढ़ गया फलस्वरुप एक ही शब्द के कई समानार्थी ,समवाची अथवा पर्यायवाची विकसित होते गए। बाद में उनके रूप और भी ज्यादा बिगड़ने लगे और अपभ्रंशों की भरमार होती गयी।
यहीं से मछुआ जातियों के नामकरण में मल्लाह , कहार जैसे विदेशी शब्द प्रचलन में आये जो हमारी मूलभूत निषाद संस्कृति के प्राचीन नामों, जिनमे धीवर, कैवर्त , केवट, मांझी, मछुआ प्रमुख थे , पर भारी पड़ते गए और मूल नामों में समाहित होने के बजाय उन्हें परिभाषित कर उनका प्रतिनिधित्व करने लगे। कालांतर में इनमे शिक्षित-अशिक्षित,ग्रामीण -नगरीय, परिष्कृत -देशज ,तत्सम -तद्भव के विभेद भी सामने आते गए और मछुआ समाज लगभग सौ नए नामों से अपनी पहचान गढ़ता गया। वास्तव में समाज के ये नए नाम भारत के बदलते नेतृत्व की भाषा के अनुसार ही ज्यादा प्रचलित हुए।
बाद में विषम पारिस्थैतिक एवं आर्थिक परिस्थितियोंवश परम्परागत व्यवसायों के बंटवारे अथवा आजीविका हेतु नए रोजगार के साधन अपनाने के कारण भी मछुआ समाज को नए नामों से जाना गया। हालाँकि इन नए नामों का परिवर्तन भी समाज पर पड़ा और समाज में बदलाव भी द्रष्टिगोचर हुआ | कहीं नए नामों के फलस्वरूप स्थितिजन्य सामाजिक बदलाव देखा गया तो कहीं सामाजिक स्तरोन्न्यन नए नामकरण की वजह बना | निरंतर परिवर्तनशील भारतीय सामाजिक व्यवस्था में समाज के हर स्तर में परिवर्तन देखे गए जिसकारण जातियों के बड़े समूह छोटे समूहों में विभक्त होते गए और हर बार एक नए नाम के साथ स्वतंत्र पहचान बनाते गए। उपजातियाँ विकसित होने लगी और मूल जातियों से प्रथक आस्तित्व बनाती गयीं। इसके दो कारण रहे ,
1 अस्पर्शता यानि अन्त्यज जातियों के घृणित पेशेजनित लोकव्यवहार सम्बन्धी निर्योग्यता।
2 औद्योगिककरण के फलस्वरूप मूल आजीविका में आये परिवर्तन।
अब तक गोत्रहीन कहे जाने वाले समाज भी अब अपना गोत्र दूंढ लाये और समाज के नए नामकरणों की दिशा देखादेखी तय होने लगी