शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

पीढियां विश्वास में..............

पने हँसकर के टाला है, जिसे उपहास में।
उसको स्वर्णिम सभ्यता, लिखा गया इतिहास में।

आज भी मुद्दा मेरा, एक प्रश्न बनकर है खड़ा
और जवाँ होती रहीं बस, पीढियां विश्वास में।

पूछता है वो, कि जल्दी से कहो चाहते हो क्या ?
कैसे सदियों की व्यथा, कह दूंगा मैं एक श्वास में ?

नर्म रोटी की महक ,दिन भर थकाती है जिसे।
पुण्य लेकर क्या करे, वो एक दिन उपवास में।

मेरे मुद्दे मौन से, थामे सड़क.……पसरे रहे ।
और सदन बस गूँजता था, हास औ परिहास में।

तिश्नगी ने मुझको शर्मिंदा नहीं होने दिया ।
मेरी खुद्दारी जो आड़े, आ गई थी प्यास में ।।

राम की अज़मत, अजुध्या पर कभी निर्भर न थी।
राम का किरदार, निखरा है सुनो ! वनवास में।

लोग ,जिसको प्रेम कहते है, क्षणिक आनंद है।
स्खलन का लक्ष्य सीमित है , यहाँ सहवास में।

कापी राईट @ अरुण कुमार तुरैहा
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