शनिवार, 23 मार्च 2013

आरक्षण का तात्पर्य गरीबी उन्मूलन कदापि नहीं

रक्षण का वास्तविक  उद्देश्य अस्पर्श्य एवं शूद्र जातियों की मूल आजीविका में परिवर्तन लाते हुए सामाजिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न बनाना हैं। यह एक संविधान सम्मत व्यवस्था है । यह शूद्रों को गाँधी अंबेडकर समझौते के तहत भारत में रहने का ईनाम हैं , शूद्रों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने की गारंटी है और व्यवस्था में भागेदारी की शर्त है । निसंदेह आरक्षण ने अपनी उपयोगिता को दलितों के मध्य प्रमाणित किया है और पिछले 60 वर्षों में इसके सुखद और प्रत्याशित परिणाम भी परिलक्षित हुये हैं । आज भी आरक्षण उतना ही प्रासंगिक है जितना पचास वर्ष पूर्व था।  इसके बिना आज भी भारत की राज सत्ता और कार्यपालिका में शूद्रो का प्रतिनिधित्व असंभव है । सदियों से उपेक्षा और अपमान का दंश झेलने वाले वर्गों को वर्तमान आरक्षण व्यवस्था ने ही सर उठाकर ससम्मान जीवन जीने का अवसर प्रदान किया हैं ।
कुछ लोग इसे गरीबी मिटाने का उपाय बताते हुए इसे गरीबों को प्रदान करने की वकालत करते हैं । जबकि आरक्षण विशुद्ध रूप से भागेदारी है । यह भूखे लोगों के लिए नहीं है ......यह उपेक्षित, उत्पीडित ,वंचित ,शोषित और बहिष्कृत लोगों को राष्ट्र की मुख्य धारा में समाहित करने का एकमेव उपाय हैं ।  यह गरीबी मिटाने का नहीं बल्कि शासन और प्रशासन में भागेदारी दिलाने का एक मात्र जरिया हैं । यह सदियों से घोर जातिवादी अन्याय का शिकार लोगों के हित में राज्य की ऐसी व्यवस्था है जिसका लक्ष्य उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत करते हुए सामाजिक स्तर पर बराबरी प्रदान करना हैं ।
गरीबी उन्मूलन का कोई भी कार्यक्रम आरक्षण का मुकाबला कदापि नहीं कर सकता । इसमें आर्थिक रूप से संरंक्षण देते हुए छुआछुत की भावना को मिटाने की संकल्पना सन्निहित हैं ।  वास्तव में जो लोग इसे गरीबी मिटाने का जरिया बनाकर पेशकरना चाहते हैं वे असल में इसके स्वरुप को बदलकर समाप्त कर देना चाहते हैं। सवर्ण को किसी भी रूप में मिला संरक्षण उसके जातीय दंभ को ही विस्तार प्रदान करेगा और जातपांत की खाई को और चौड़ा करेगा ।

मैं राहुल से बात करूंगा !!

मैं राहुल से बात करूंगा, दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर से निकल पड़ा हैं, चलने को अंगारों पर ॥

आरक्षण अधिकार हमारा, कब तक हमें दबाओगे ।
थोथी सत्ता के बलबूते , कब तक हमें हटाओगे॥
जिस दिन मछुआ कमर बाँध कर, सड़कों पर आ जायेगा ।
सुनो सोनिया ! दस वर्षों का, महल वहीँ ढह जाएगा ॥ 
मनमोहन इल्जाम न रखना, फिर कोई मछुआरों पर  ।

मैं राहुल से बात करूंगा , दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर निकल पड़ा हैं , चलने को अंगारों पर ॥

जिस सरकार में झूठ बोलकर, नेता काम चलाते हैं ।
जिस सरकार में पद पर बैठे, जिम्मेदार डराते है ॥
उस सरकार में हक की बोली, लगता है दब जायेगी ।
पक्षपात और राग द्वेष की, बात भला कब जायेगी ॥ 
कब तक सत्ता टिकी रहेगी, वादों के आधारों पर । 

मैं राहुल से बात करूंगा , दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर से निकल पड़ा हैं, चलने को अंगारों पर ॥

जिन पर है दायित्व सदन का, वाहन चोर- उचक्के हैं । 
अधिकारी भी शपथ भूलकर, अपनी जात के पक्के हैं ॥
आवाजों की फ़ाइल बनाकर, ढेर लगायें  बैठे हैं ।
सचिवालय में जातिवाद का, फ़र्ज़ निभाये बैठे हैं ॥ 
सरकारी संरक्षण दिखता ,मुझको इन मक्कारों पर । 

मैं राहुल से बात करूंगा , दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर से निकल पड़ा हैं, चलने को अंगारों पर ॥

प्रस्ताव ही नहीं , गंभीर पैरवी भी करे सपा

ब वक़्त आ गया है कि उत्तर प्रदेश में निवासरत मछुआ समुदाय की जातियों को अनुसूचित जातियों में सम्मिलित करने सम्बन्धी प्रस्ताव पर समाजवादी पार्टी केंद्र सरकार से मजबूत पैरवी भी करे।
उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी की अबतक की कार्यशैली और रणनीति समाज के हिसाब से फायदेमंद रही हैं । सपा ने विधान सभा चुनाव 2012 में समाज से वादा किया था कि वह सत्ता प्राप्ति के पश्चात इन जातियों को अनुसूचित जातियों की परिधि में लाएगी और अनुसूचित जाति की सुविधा देते हुए इन जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल भी करेगी । हालाँकि संविधान अनुच्छेद 341 (1) के अंतर्गत यह शक्तियां केंद्र सरकार और संसद में निहित हैं और राज्य सरकार की भूमिका केवल परामर्श एवं संस्तुति सहित आवश्यक प्रस्ताव भेजने तक ही सीमित रहती है ।
गुजरे पूरे दोनों माह इन जातियों के लिए सर्वश्रष्ठ रहे । जहाँ फरवरी में सरकार ने विशाल रैली आयोजित करके इन जातियों के जज्बे को आँका जिस पर ये जातियां भारी पड़ीं और लखनऊ की सड़कों पर आन डटी वहीँ इनकी उमड़ी भारी तादाद से उत्साहित सरकार ने तुरंत केन्द्र सरकार को सिफारिशी पत्र  भेजते हुये शीघ्र ही कैबिनेट की संस्तुति को उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति /जनजाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान की 400 प्रष्टों की आख्या के साथ संलग्न कर प्रेषित किया । इतना ही नहीं पिछली बार के कटु अनुभव से चेतते हुए सपा सरकार ने इस दफा अपने रणनीतिकारों को प्रस्ताव के मूल्यांकन में लगाया और एक उत्कृष्ट प्रस्ताव तैयार कर केंद्र को कार्रवाही के लिए प्रेषित किया । शुकवार को विधान सभा सत्र के अंतिम दिन सदन में ध्वनि मत से संकल्प पास करके को केंद्र सरकार को भेजा। यहाँ तक तो सपा ने अपने काम को देर सवेर ही सही .....भली भांति सही सही  अंजाम दिया । अब सिर्फ केंद्र सरकार को गजट नोटिफिकेशन के माध्यम से सूचना प्रकाशित करनी हैं ।
लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार इस प्रस्ताव को लेकर उतना उत्साह नहीं दिखा रही जितना प्रदेश सरकार और मछुआ जातियों ने दिखाया । कांग्रेस सरकार अल्पमत में है और सपा के समर्थन की बैशाखी पर टिकी है । अब सपा को चाहिए कि वह अपने 24 लोक सभा और 12 राज्यसभा सांसदों के माध्यम से कांग्रेस पर दवाब बनाये और इस प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में जाने से बचाए अन्यथा इस प्रस्ताव के लटक जाने और ठन्डे बस्ते में जाने पर कांग्रेस के साथ साथ सपा भी बराबर की दोषी प्रमाणित होगी । लेकिन हमें सिर्फ सपा के सहारे अपनी लड़ाई नहीं छोडनी होगी बल्कि अपना समर्थन सडक पर उतर कर दिखाना होगा । सारी पार्टियाँ हमारे पीछे खड़ी नज़र आएँगी ।
मेरी राय में सपा के सभी सांसदों को मछुआ समुदाय के लोग पत्र भेजें और बताएं उनकी लड़ाई अंतिम स्तर पर है । जहाँ पर सपा के एक एक सदस्य का समर्थन मायने रखता है । हालाकिं इस मुद्दे पर भाजपा का भी नीतिगत समर्थन है क्योकि उसके चुनावी एजेंडे में भी यह बिंदु था । बसपा से समर्थन की उम्मीद बेमानी है । महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे से जूझ रही कांग्रेस  यदि इस प्रस्ताव को मानकर मछुआ समुदाय को उसका बहुप्रतीक्षित अधिकार उपलब्ध करा देती है तो यूपी में मरणासन्न कांग्रेस को संजीवनी मिल सकती हैं । 

सोमवार, 11 मार्च 2013

आज कलुआ बहुत खुस है


पने गाँव का कलुआ आज बहुत खुस है । डिजिटल जो हुई गवा ।
इंटर पास करते ही कलुआ बस लैपटाप की रट लगाए था । एक एक दिन भारी पड़ रहा था , लेकिन कलुआ ने उम्मीद न छोड़ी । कहता था नेताजी ने कहा है तो करके जरूर दिखायेंगे । आखिर वो दिन आ ही गया । कलुआ जैसे ही लैपटाप ले कर बस से उतरा, पूरा गाँव अड्डे पर उमड़ आया । लोगों ने कलुआ और लैपटाप को मालाओं से लाद दिया । हर कोई कलुआ की तारीफ़ करता चलता था । अपना कलुआ बड़ा होनहार है भाई । गाँव की शान है पठ्ठा । पूरे इलाके में यही तो है जो पहला लैपटाप जीत कर लाया है ।
आज सुबह से ही नहाधोकर कलुआ लैपटाप लिए शान से चौराहे पे बैठा है । जब से हाथ आया है , कलुआ तो एक दम पगला गया है । मारे ख़ुशी के रात भर सो न सका । रात भर में दो बार उठ कर लैपटाप चैक भी किया। सही तो रखा है न ।
 पूरा मोहल्ला कल से कलुआ के घर पड़ा हैं , गाँव के बुजुर्ग, औरतें और बच्चे घर से आगे जाते ही नहीं , बस एक नजर भर कर देखना चाहते हैं लैपटाप को । कलुआ किरकिट ट्राफी की तरह चमका रहा है लैपटाप को हर आधे घंटे में । गाँव में लाईट नहीं थी न , सो  कल ...लैप टाप चल न सका । रात भर भूकन हलवाई की दूकान में चार्ज किये रहा इन्वैटर से । थोडा बैटरी भरते ही गाँव में हल्ला मच गया .... अरे ! लैपटाप चल गया । लैपटाप चलते ही कलुआ के बाप का सीना चौड़ा हो गया । माँ दुआएं मांगती जाती थी कलुआ के लिए । डिस्प्ले पर नेताजी और मुख्यमंत्री जी की तस्वीर उभरते ही तालियाँ बज उठीं । हर कोई तारीफ़ कर रहा था । बुधई काका भी भीड़ में खड़े हैं ....हिसाब लगा रहे है अभी से । अगले साल मेरे भी घर में दो लैपटाप और दो टैबलेट होंगे ।
आज कलुआ के घर ढोलक बजेगी । सुबह से कलुआ की बहने बिरादरी में बुलावा बाँट आई है। पंसारी के यहाँ से 5 किलो बताशे मंगवाए गए हैं बाँटने के लिए ।
 इसी बहाने समाजवादी सरकार ने गाँव गाँव खुशियाँ बाँट दी । 

रविवार, 10 मार्च 2013

मैं क्यों मनाऊँ गणतंत्र ?

मैं क्यों मनाऊँ गणतंत्र ?
न तो हुयी मेरी गणना ,
किसी दौर में कभी ,
और न किसी तंत्र ने ,
समझा मुझे अपना हिस्सा ।
मैं क्यों गीत गाऊँ,
संविधान के ,
जो पल में ,
बदल दिया जाता है औरों के लिए ।
मैं और मेरे लोग ,
बदलाव की चिठ्ठी लिए,
दौड़ते रहे दफ्तर दफ्तर ,
फांकते रहे धूल संसदीय गलियारों की,
और बोलते रहे जिन्दाबाद,
उन बेजमीर मुर्दा लोगों की,
जिन्होंने गणतंत्र के नाम की ,
तोड़ी हैं बस रोटियाँ ही आज तक ।
मेरे हिस्से की धुप,
बना दी गयी जीनत ,
जिनके आँगन की ,
और मुझे पकड़ा दिए गए,
चंद लड्डू ,
बदले में ,
गणतन्त्र के नाम पर ।

सुन ले दिल्ली !!

सुन ले दिल्ली वक़्त हमारा आज नहीं कल आएगा
आरक्षण अधिकार हमारा , और नहीं टल पायेगा

सीमाए सब टूट रही है , बनी ज्वाल अब चिंगारी
जो अब भी वंचित हैं वो सत्ता के असली अधिकारी
साठ वर्ष से मछुआ केवल तेरी डोली ढोता है
छिले हुए काँधे को लेकर अपने मन में रोता है
टूटी नैय्या थका खिवैया भला किसे छल पायेगा

सुन ले दिल्ली वक़्त हमारा आज नहीं कल आएगा
आरक्षण अधिकार हमारा , और नहीं टल पायेगा

हमने तेरे लिए न जाने कितनी गलियां छानी हैं ।
एक ठन्डे झोके की खातिर तेरी शर्तें मानी हैं ।
देख रहा है आज जमाना सत्ता हमको देगी क्या ?
अब तेरे हाथों की ताक़त सब्र हमारा लेगी क्या ?
टालमटोल रवैया तेरा और नहीं चल पायेगा ।

सुन ले दिल्ली वक़्त हमारा आज नहीं कल आएगा
आरक्षण अधिकार हमारा , और नहीं टल पायेगा

द्रोण , तुम मरे नहीं,

द्रोण ,
तुम मरे नहीं,
आज भी जिन्दा हो ।
कुत्ते की तरह ,
जातिगंध सूंघते टाइटिल में,
आज भी कर रहे हो निषाद प्रतिभाओं का दमन ।
सत्ता के नजदीक रहने की चाह ,
निरंतर कटवा रही है तुमसे आज भी अंगूठे ।
गुरुओं का इतिहास कलंकित कर ,
आज भी गूंज रहा है तुम्हारा अठ्ठाहस ,
और तुम आज भी बने हुए हो सम्मानित ।
लेकिन भूल रहे हो तुम ,
बेइमान गुरु का पुत्र कभी पारंगत नहीं होता ,
अश्वत्थामा की तरह आज भी आवारा घूमता है ,
और कटवा कर छोड़ता है नाक ,
बदले में अंगूठे के ।

शनिवार, 2 मार्च 2013

आक्रोश

प कहते हो कि बस ये जोश है ।
जी नहीं, ये बरसों का आक्रोश है ।।

बढ़ रही है हर तरफ बेचैनियाँ ।
और वो दिल्ली में बस मदहोश है ।।

बस पकड़नी थी, सो आँखें मूँद ली ।
वैसे उस घटना से मुझमें रोष है ।।

चीखती है उसकी आखों से व्यथा ।
ये अलग, वो तिश्ना लब खामोश है ।।

सिर्फ ठहराया गया मुजरिम उसे ।
जबकि व्यवस्था का सारा दोष है ।।

अजनबी सा रोज मिलता है मगर ।
वो कभी मेरा भी था, संतोष है ।।

तोमर शब्द की उत्पत्ति

तोमर शब्द की उत्पत्ति तोमा शब्द से हुयी है जिसका अभिप्राय एक पके हुए कद्दू से है । जो पकने के बाद पूरी तरह सूख जाता हैं । मछुआरे इसका डंठल तोड़कर इसके अन्दर का सूखा गूदा निकाल लेते थे और डंठल को उसी जगह वापस रखकर कोलतार से चिपका देते थे । अब यह तोमा एक बड़ी सी फ़ुटबाल का काम करता और पानी में उतराता । इस तोमे की सहायता से आसानी से तैरा भी जा सकता था । यह तोमा झील में डाल कर मछली शिकार हेतु खींचने वाली जाली की उपरी रस्सी से बाँधा जाता था ,जो जाल को पानी में डूबने नहीं देता था । इस प्रकार चालाक मछलियाँ , जो पानी की ऊपरी सतह से एक फिट ऊपर रहकर जाल के डूबने की वजह बच जाती थीं, इसी तोमे के कारण फंस जाती ।
 सीधे और सरल अर्थों में यह तोमा एक प्रकार का ब्लैडर होता था जिसे मछुआरों ने अपनी आवश्यकतानुसार ईजाद किया । इस तोमे को धारण करने वाले और इसका प्रयोग करने वाले मछुआरों ने कालांतर में स्वयं को तोमर लिखना शुरू कर दिया । इसका दोहरा फायदा होता । टाइटिल में जातिगंध सूंघकर पता लगाने वाला ठाकुर साहब या चौधरी जाट समझ कर सलाम ठोकता । समाज के उच्च शिक्षित मछुआ होकर भी मछुआ कहलवाने से बच जाते 
वहीँ दूसरी और तोमर एक अस्त्र का नाम भी है , जिसे चलाने में पारंगत क्षत्रिय राजपूतों ने भी स्वयं को तोमर लिखा ।
लेकिन मछुआ समुदाय के अर्थों में पहले वाली व्याख्या ही सटीक, स्पष्ट और संश्लेषित हैं ।