बुधवार, 21 अगस्त 2013

कांवड़ सेवा में हीरो … समाज के नाम पर जीरो

भी अभी सावन का महीना गुज़रा है । भोले शंकर के शिवालयों में गंगा का पवित्र जल लाकर अभिषेक करने वाले कांवरियों का हुज्जूम इस माह सड़कों हर तरफ पर दिखाई पड़ता हैं । मगर जो ताज्जुब इस बार हुआ वो पहले कभी नहीं देखा । हमारे मछुआ समाज के सैकड़ों युवा पुरेजोशोखरोश के साथ कांवरियों के स्वागत में डटे हुए थे । कुछ लोग तो महीनों पहले से चन्दा कर रहे थे ताकि जल लेकर आने वाले श्रद्धालुओं को बढ़िया शुद्ध दूध की काजू,बादाम,पिस्ता वाली खीर खिलाई जा सके , उन्हें ताजे मौसमी बेहतरीन फलों का भंडारा करने के लिए कुछ महानुभाव पूरे शहर की दुकाने तलाशे डाल रहे थे । हमारे युवा मोटर साइकिल पर भगवा ध्वज थामे मोहल्ले मोहल्ले दौड रहे थे ताकि महिलायें भारी संख्या में उपस्थित हों और मंगल आरती गायें । एक साहब तो देसी घी के चार छह टिन लिए घूम रहे थे कि कोई संस्था उन्हें उनसे ले ले । भोग भंडारे ,हलुआ पूड़ी सब्जी रायता का पूरा इंतजाम हमारे समाज के लोग लिए बैठे थे । समाज की ऊर्जा पूरे सावन कांवरियों पर व्यय हुई ,पैसा गया सो अलग …….मेरी समझ में यह नहीं आता…….यह समाज आरक्षण के नाम पर घर से क्यों नहीं निकलता । किसी मछुआ कार्यक्रम में खर्च करने पर जान क्यों निकलती है । दानियों के हाथ धर्म के नाम पर उदार हैं किन्तु जाति के नाम पर नाक भौं सिकोड़ते है । हालाँकि मैं भी वर्ष 2001 और 2003 में दो बार सौ किमी दूर गंगा घाट से काँवर लाकर स्थानीय मंदिर पर जिसे रामपुर नवाब ने बनवाया था , चढ़ा चुका हूँ ।  यों तो मैं गंगा के उदगम गौमुख सहित गंगोत्री यमनोत्री ,केदारनाथ, बद्रीनाथ, हरिद्वार ,मथुरा, चित्रकूट ,बालाजी राजस्थान ,उज्जैन महाकाल , काशी विश्वनाथ, वैष्णो देवी सहित हिमांचल की काँगड़ा देवी, चिंतपूर्णी, ज्वालादेवी ,चामुंडा देवी ,मैहर देवी मध्यप्रदेश सहित एक दर्जन शक्तिपीठ (ध्यान दें, सिद्धपीठ नहीं ) के दर्शन कर चुका हूँ लेकिन मेरा यह मानना है धर्म व्यक्तिगत विषय है सड़कों पर प्रदर्शन करने का नहीं । जाति के मामले में सामने आने से पोल खुलने का भय रहता है इसी लिए कई समाज बंधू जातीय आयोजनों से दूर रहते हैं किंतु धार्मिक आयोजनों में चौधरी की भूमिका और भामाशाह बनने को लालायित रहते हैं ।

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