कल मुझे दो व्यक्ति मिले । उनका निहायत पक्का अर्थात शुद्ध काला रंग उनके अनार्य रक्त को दूर से ही प्रमाणित कर रहा था । निश्चय ही वे किसी अन्त्यज अथवा शूद्र जाति के रहे होंगे । जिज्ञासावश मैं उन्हें देख कर ठिठक गया । वे किसी काम से बैंक आये थे । मैं भी एक चैक के क्लीयरेंस के सिलसिले में बैंक आया था । स्वभावतः मैंने उन्हें बुलाकर कुशलक्षेम के पश्चात उनका परिचय ,कार्यक्षेत्र और जाति के विषय में पूछा । मेरी जोरदार हंसी छूट गयी जब उन्होंने अपने आपको सिंघाडिया तौमर राजपूत जाति का बताया । मैंने अनजान बनते हुए कहा कि ये सिंघाडिया कौन सी जाति होती है तो वे कहने लगे तौमर राजपूत । मैंने कहा तौमर राजपूत या तौंगड़ राजपूत ? अब बारी उनके हक्के बक्के रहने की थी ।
दरअसल हिमालय के तलहटी से सटे तराई क्षेत्र में नदियाँ सीधे पर्वतों से उतर कर वनक्षेत्र में पसर जाती थीं जिस कारण यहाँ जंगलों और दलदली भूमि का बाहुल्य था । आजादी के पश्चात एक दर्जन से अधिक बाँध बन जाने के कारण नदियों ने अपना मार्ग बदल दिया और पुराने नदी मार्गों पर बड़ी बड़ी झीलें और तोड़ बन गए जो कालांतर में तालाबों में परिवर्तित हो गए । मछुआ समुदाय के जिन जातियों के लोग इन तालाबों में मछलियों का शिकार करते थे.....वे स्थानीय बोली में तुराहे धीमर कहलाये और जो लोग इन तालों में बंद ऋतुकाल में सिंघाड़े की बेल डालकर सिंघाड़ा उत्पादन करते थे वे सिंघाडिये कहलाये और इन तालाबों पर काबिज आश्रित होते गए। ये जल श्रमिक सिंघाड़ा उत्पादन में माहिर होते हैं और ट्यूब अथवा तौमे पर बैठकर दिनभर तालाब में तैरते रहते हैं । नंगे बदन दिनभर धुप में रहने के कारण इनका शरीर काला हो जाता है , ज्यादा समय गंदे पानी में रहने के कारण इनको चर्मरोग या त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ अधिकांशतया हो जाती है । इनके पास इसका एक घरेलू उपाय भी है…राख मलकर ये अपन त्वचा सम्बन्धी उपाय भी कर लेते हैं । चूँकि पिछड़ी जातियों में स्वयं को राजपूत कहलवाने की प्रवृत्ति आरम्भ से ही हावी थी अतः ये स्वयं को तौमर राजपूत सिंघाडिये कहलाते थे । ये जाति सामाजिक रूप से ग्रामीण परिवेश में लोध राजपूतों , सैनी और खडगवंशी राजपूतों यानि खागी कश्यप से काफी घुली मिली रहती थी वे लोग इन सिघाडियों को छेड़ने अथवा चिढाने के लिए तौंगड़ राजपूत भी कहते थे ।
उन दोनॉ ने बताया कि वे बीस साल से एक बड़े तालाब पर काबिज थे जो उन्हें मुलायम सिंह जी की पिछली सरकार में वर्ष 94 में स्थानीय विधायक स्व० ज्ञानी हरिन्दर सिंह जी की सिफारिश पर दिया गया था । उस समय तालाब मात्र 6000 रुपयों में मिला था जिसका दस वर्ष बाद प्रथम रिन्यूवल 10000 रुपयों में हुआ , अब की बार रिन्यूवल 18000 रूपये में हो रहा था , उनके पास इतने रूपये की व्यवस्था नहीं थी नतीजतन उन्होंने तालाब का पट्टा बजरिये बयनामा कतई एक मुसलमान को रजिस्ट्री कराकर 1,30,000 रूपये में बेच दिया और उत्तराखंड जाकर भूमिहीनों में नाम लिखा आये और मकान भी वहीँ ले लिया । मैंने कहा तालाब बेचने की क्या जरूरत थी , तुम तालाब से 150 रूपये महीने यानि 5 रूपये रोज की भी बचत कर लेते तो दस वर्ष के 120 महीनों में 18000 की रकम जमा कर लेते । बोले खर्चा ही इतना है … बचत कहाँ से करें । मैंने समझाया बचत छोडो …बीडी पीना ही छोड़ देते तो 5 रूपये रोज जमाकर तालाब बचाकर ले जाते । वे निरुतर हो गए । मैंने बात सँभालते हुए पुनः कहा …. बेचना ही था तो अपने किसी मछुआ भाई को ही देते । वे कहने लगे किसी मछुआ जाति के व्यक्ति के पास इतने रूपये नहीं थे जो इस कीमत पर खरीद पाता । मैंने पुनः कहा किसी अन्य हिन्दू जाति को ही दे देते । कोई अन्य हिन्दू इस काम को नहीं करना चाहता …उनका बेलौस जवाब था ।
मैंने उन्हें बताया कि हमारे पास दो तालाब हैं, क्या उसमे वे सिंघाडे की बेल मजदूरी पर डाल सकते हैं ? उनका जवाब था उन्हें ये काम आता ही नहीं है । अब चौंकने की बारी मेरी थी ,मैंने पूछा.....काम नहीं आता तो बीस साल से तालाब का क्या कर रहे थे ? वे बोले …मुसलमान को किराए पर दे रखा था । मैंने कहा मुसलमान क्या करता था तुम्हारे तालाब का। बोले……धीमरों से मजदूरी पर मछलियाँ मरवाता था । मैं अब झुंझलाने लगा । मैंने प्रतिप्रश्न किया ......... ये कार्य तो मछुआरों से आप स्वयं भी करवा सकते थे। वे बोले...... स्साले हमारे कहने से तैयार नहीं होते थे । बिरादरी की मजदूरी करने में शान घटती है न…। मुसलमान गाली बककर उनसे खूब काम कराता था । मैंने जानना चाहा कि फिर आपका क्या काम धंधा था। वे बोले नदी घाट पर खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूज की पालेज बोते थे। मैंने शंकित होकर जाना चाहा किसकी भूमि पर ? वे सहज भाव से बोले मुसलमान की ।
मैंने अपना सर पीट लिया ।
जो समाज अपने अधिकार को खोकर सोया ही रहेगा और हाथ आये अवसर को यूँ ही छोड़ देगा साक्षात् ब्रह्मा भी उसका कल्याण नहीं कर सकते । मेरे Android फ़ोन का बैटरी बैकप जाता रहा अन्यथा उनकी फोटो खींचकर जरूर प्रकाशित करता ।
दरअसल हिमालय के तलहटी से सटे तराई क्षेत्र में नदियाँ सीधे पर्वतों से उतर कर वनक्षेत्र में पसर जाती थीं जिस कारण यहाँ जंगलों और दलदली भूमि का बाहुल्य था । आजादी के पश्चात एक दर्जन से अधिक बाँध बन जाने के कारण नदियों ने अपना मार्ग बदल दिया और पुराने नदी मार्गों पर बड़ी बड़ी झीलें और तोड़ बन गए जो कालांतर में तालाबों में परिवर्तित हो गए । मछुआ समुदाय के जिन जातियों के लोग इन तालाबों में मछलियों का शिकार करते थे.....वे स्थानीय बोली में तुराहे धीमर कहलाये और जो लोग इन तालों में बंद ऋतुकाल में सिंघाड़े की बेल डालकर सिंघाड़ा उत्पादन करते थे वे सिंघाडिये कहलाये और इन तालाबों पर काबिज आश्रित होते गए। ये जल श्रमिक सिंघाड़ा उत्पादन में माहिर होते हैं और ट्यूब अथवा तौमे पर बैठकर दिनभर तालाब में तैरते रहते हैं । नंगे बदन दिनभर धुप में रहने के कारण इनका शरीर काला हो जाता है , ज्यादा समय गंदे पानी में रहने के कारण इनको चर्मरोग या त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ अधिकांशतया हो जाती है । इनके पास इसका एक घरेलू उपाय भी है…राख मलकर ये अपन त्वचा सम्बन्धी उपाय भी कर लेते हैं । चूँकि पिछड़ी जातियों में स्वयं को राजपूत कहलवाने की प्रवृत्ति आरम्भ से ही हावी थी अतः ये स्वयं को तौमर राजपूत सिंघाडिये कहलाते थे । ये जाति सामाजिक रूप से ग्रामीण परिवेश में लोध राजपूतों , सैनी और खडगवंशी राजपूतों यानि खागी कश्यप से काफी घुली मिली रहती थी वे लोग इन सिघाडियों को छेड़ने अथवा चिढाने के लिए तौंगड़ राजपूत भी कहते थे ।
उन दोनॉ ने बताया कि वे बीस साल से एक बड़े तालाब पर काबिज थे जो उन्हें मुलायम सिंह जी की पिछली सरकार में वर्ष 94 में स्थानीय विधायक स्व० ज्ञानी हरिन्दर सिंह जी की सिफारिश पर दिया गया था । उस समय तालाब मात्र 6000 रुपयों में मिला था जिसका दस वर्ष बाद प्रथम रिन्यूवल 10000 रुपयों में हुआ , अब की बार रिन्यूवल 18000 रूपये में हो रहा था , उनके पास इतने रूपये की व्यवस्था नहीं थी नतीजतन उन्होंने तालाब का पट्टा बजरिये बयनामा कतई एक मुसलमान को रजिस्ट्री कराकर 1,30,000 रूपये में बेच दिया और उत्तराखंड जाकर भूमिहीनों में नाम लिखा आये और मकान भी वहीँ ले लिया । मैंने कहा तालाब बेचने की क्या जरूरत थी , तुम तालाब से 150 रूपये महीने यानि 5 रूपये रोज की भी बचत कर लेते तो दस वर्ष के 120 महीनों में 18000 की रकम जमा कर लेते । बोले खर्चा ही इतना है … बचत कहाँ से करें । मैंने समझाया बचत छोडो …बीडी पीना ही छोड़ देते तो 5 रूपये रोज जमाकर तालाब बचाकर ले जाते । वे निरुतर हो गए । मैंने बात सँभालते हुए पुनः कहा …. बेचना ही था तो अपने किसी मछुआ भाई को ही देते । वे कहने लगे किसी मछुआ जाति के व्यक्ति के पास इतने रूपये नहीं थे जो इस कीमत पर खरीद पाता । मैंने पुनः कहा किसी अन्य हिन्दू जाति को ही दे देते । कोई अन्य हिन्दू इस काम को नहीं करना चाहता …उनका बेलौस जवाब था ।
मैंने उन्हें बताया कि हमारे पास दो तालाब हैं, क्या उसमे वे सिंघाडे की बेल मजदूरी पर डाल सकते हैं ? उनका जवाब था उन्हें ये काम आता ही नहीं है । अब चौंकने की बारी मेरी थी ,मैंने पूछा.....काम नहीं आता तो बीस साल से तालाब का क्या कर रहे थे ? वे बोले …मुसलमान को किराए पर दे रखा था । मैंने कहा मुसलमान क्या करता था तुम्हारे तालाब का। बोले……धीमरों से मजदूरी पर मछलियाँ मरवाता था । मैं अब झुंझलाने लगा । मैंने प्रतिप्रश्न किया ......... ये कार्य तो मछुआरों से आप स्वयं भी करवा सकते थे। वे बोले...... स्साले हमारे कहने से तैयार नहीं होते थे । बिरादरी की मजदूरी करने में शान घटती है न…। मुसलमान गाली बककर उनसे खूब काम कराता था । मैंने जानना चाहा कि फिर आपका क्या काम धंधा था। वे बोले नदी घाट पर खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूज की पालेज बोते थे। मैंने शंकित होकर जाना चाहा किसकी भूमि पर ? वे सहज भाव से बोले मुसलमान की ।
मैंने अपना सर पीट लिया ।
जो समाज अपने अधिकार को खोकर सोया ही रहेगा और हाथ आये अवसर को यूँ ही छोड़ देगा साक्षात् ब्रह्मा भी उसका कल्याण नहीं कर सकते । मेरे Android फ़ोन का बैटरी बैकप जाता रहा अन्यथा उनकी फोटो खींचकर जरूर प्रकाशित करता ।
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