रविवार, 24 नवंबर 2013

Election....... means ..…"Fishermen first",

My definition of Election....... means ..…"Fishermen first",
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चुनावी राजनीति और जातीय गणित को समझे मछुआ समुदाय ।
दलीय प्रतिबद्धताओं को त्याग कर दलीय दलदल से निकले और मछुआ प्रत्याशियों के हित कमर कसे समाज ।
2014 लोक सभा का चुनाव मुहाने पर है और हमारा SC आरक्षण का प्रस्ताव लोकसभा में पेश होने के इंतज़ार में धुल खा रहा है । विलम्ब का कारण यह नहीं कि फलां पार्टी हमारे समाज को कुछ देना नहीं चाहती , बल्कि टालमटोल का सबब यह है कि हम लेने वालों में से हैं, … देने वालों में से नहीं अर्थात सत्ताधारी राजनैतिक दल में हमारे मछुआ समुदाय का प्रतिनिधित्व नगण्य सा है या बहुत कम है । और सौभाग्य से कुछ है भी तो वे लोग दलीय मर्यादा की रस्सी से बंधी गाय से बढ़कर नहीं जो स्वामी भक्ति की अतिशयता की हद किये डालते हैं और दलीय चारा चरते हुए गाहे बगाहे सामाजिक कार्यक्रमों में निकलते हैं और सिर्फ दलीय राग छेड़ अपनी विवशता का कीर्तन करते हैं ।
हमें दलीय सीमाओं को तोड़ कर सामाजिक रूप से सशक्त होना होगा और अधिक से अधिक मछुआ प्रत्याशी जिताकर संसद भेजने होंगे । जब केंद्रीय सत्ता में अथवा लोकसभा में ही हमारी आवाज़ को बुलंद करने वाले सांसदों का अभाव होगा तो हमारी बात कैसे और क्यों सरकार के कानों तक पहुंचेगी । अगर धुन के पक्के सिर्फ चार मछुआ MP ठान लें तो मजाल है जो संसद का सत्र एक दिन भी चल जाए ।
भारत के प्रत्येक राज्य में हमारी मछुआ आबादी है , सत्तरह राज्यों में हम SC/ST के रूप में हैं बाकी में OBC अथवा विमुक्त ।
एक हो जाये तो मछुआ समुदाय अपने संख्या बल पर देश की संसद में कम से कम 60 सांसद चुनकर भेज सकता है किन्तु विभक्त संगठन और बंटा हुआ समाज प्रायः हर चुनाव में हाथ मलता रह जाता है । हम एक नेता और एक नीति के लिए तरसते ही रहे । खेमों और धड़ों में बँटना और ऐन मौके पर बिकना ,बिखरना और बहकना हमारी नियति रही हैं । हमारे वर्त्तमान में झूठे स्वाभिमान का मोह पल रहा हैं और व्यवस्था जनित संड़ाध को अपने में समेटे हमारा समाज आगे बढ़ने का दिवास्वप्न देख रहा है जो बिना त्याग , निस्वार्थभाव और बलिदानी जज्बे के सफल होने वाला नहीं हैं ।
निषाद वैभव की पुनर्प्राप्ति के लिए आइये संकल्पित होकर मतदान करें और शपथ लें कि " वोट और बेटी समाज को ही देंगे " और आगे बढ़ अपना अधिकार लेंगे ।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

शास्त्री जी और गुमनाम मल्लाह

भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के बारे में एक कथा का जिक्र लोग अक्सर करते हैं । कहा जाता है शास्त्री जी अत्यंत निर्धन थे लेकिन विषम परिस्थितियों में भी अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए थे । वे रोजाना नदी पार कर स्कूल जाते , एक बार उनके पास उनके पास मल्लाहों को देने के लिए पैसे नहीं थे तो उन्होंने तैर कर नदी पार की । इतने स्वाभिमानी थे लाल बहादुर शास्त्री जी !
………ये कथा अधूरी है। …इसके बाद की कथा का जिक्र इतिहास में जान बूझकर नहीं किया गया । ये सत्य है कि शास्त्री जी का बचपन अत्यंत विषम परिस्थितियों में बीता और विपरीत आर्थिक हालात के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी । जहाँ तक तैर कर नदी पार करने का प्रसंग है, इसमें सच्चाई है कि वे रोजाना नदी पार कर स्कूल जाते , एक बार उनके पास मल्लाह को देने के लिए पैसे नहीं थे तो वे अपने बस्ते को सर पर बाँध कर गंगा में उतर गए। …मुगलसराय गंगाघाट के मल्लाहों को जब बालक के हौसले की जानकारी हुयी तो उन्होंने कहलवा दिया कि इस बालक (लाल बहादुर शास्त्री ) से ही नहीं बल्कि विद्यालय आने जाने वाले किसी भी बालक से मल्लाह उतराई नहीं वसूलेंगे । मल्लाहों के आपसी निर्णय का तेजी से पालन हुआ और मुगलसराय ही नहीं आसपास के सभी घाटों पर विद्यार्थियों की उतराई मुआफ़ कर दी गयी । लेकिन मल्लाहों के इस निर्णय को इतिहास में कहीं मान सम्मान नहीं मिला और गुमनाम नायकों की भाति वे इतिहास में बिसरा दिए गए ।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

कांवड़ सेवा में हीरो … समाज के नाम पर जीरो

भी अभी सावन का महीना गुज़रा है । भोले शंकर के शिवालयों में गंगा का पवित्र जल लाकर अभिषेक करने वाले कांवरियों का हुज्जूम इस माह सड़कों हर तरफ पर दिखाई पड़ता हैं । मगर जो ताज्जुब इस बार हुआ वो पहले कभी नहीं देखा । हमारे मछुआ समाज के सैकड़ों युवा पुरेजोशोखरोश के साथ कांवरियों के स्वागत में डटे हुए थे । कुछ लोग तो महीनों पहले से चन्दा कर रहे थे ताकि जल लेकर आने वाले श्रद्धालुओं को बढ़िया शुद्ध दूध की काजू,बादाम,पिस्ता वाली खीर खिलाई जा सके , उन्हें ताजे मौसमी बेहतरीन फलों का भंडारा करने के लिए कुछ महानुभाव पूरे शहर की दुकाने तलाशे डाल रहे थे । हमारे युवा मोटर साइकिल पर भगवा ध्वज थामे मोहल्ले मोहल्ले दौड रहे थे ताकि महिलायें भारी संख्या में उपस्थित हों और मंगल आरती गायें । एक साहब तो देसी घी के चार छह टिन लिए घूम रहे थे कि कोई संस्था उन्हें उनसे ले ले । भोग भंडारे ,हलुआ पूड़ी सब्जी रायता का पूरा इंतजाम हमारे समाज के लोग लिए बैठे थे । समाज की ऊर्जा पूरे सावन कांवरियों पर व्यय हुई ,पैसा गया सो अलग …….मेरी समझ में यह नहीं आता…….यह समाज आरक्षण के नाम पर घर से क्यों नहीं निकलता । किसी मछुआ कार्यक्रम में खर्च करने पर जान क्यों निकलती है । दानियों के हाथ धर्म के नाम पर उदार हैं किन्तु जाति के नाम पर नाक भौं सिकोड़ते है । हालाँकि मैं भी वर्ष 2001 और 2003 में दो बार सौ किमी दूर गंगा घाट से काँवर लाकर स्थानीय मंदिर पर जिसे रामपुर नवाब ने बनवाया था , चढ़ा चुका हूँ ।  यों तो मैं गंगा के उदगम गौमुख सहित गंगोत्री यमनोत्री ,केदारनाथ, बद्रीनाथ, हरिद्वार ,मथुरा, चित्रकूट ,बालाजी राजस्थान ,उज्जैन महाकाल , काशी विश्वनाथ, वैष्णो देवी सहित हिमांचल की काँगड़ा देवी, चिंतपूर्णी, ज्वालादेवी ,चामुंडा देवी ,मैहर देवी मध्यप्रदेश सहित एक दर्जन शक्तिपीठ (ध्यान दें, सिद्धपीठ नहीं ) के दर्शन कर चुका हूँ लेकिन मेरा यह मानना है धर्म व्यक्तिगत विषय है सड़कों पर प्रदर्शन करने का नहीं । जाति के मामले में सामने आने से पोल खुलने का भय रहता है इसी लिए कई समाज बंधू जातीय आयोजनों से दूर रहते हैं किंतु धार्मिक आयोजनों में चौधरी की भूमिका और भामाशाह बनने को लालायित रहते हैं ।

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

दामाद बाबू !

का बे ! नासपीटो …….सब मिल गरियाए रहे हो दामाद बाबू को । बिलकुल सरम नाहीं , सब बिल्लात पगलाए गए हो……. सब भाजपाई झुठबे बोल रहा है और सब दौड़ाये लिए जा रहे दामाद बाबू को ! बख्शो बे । भारतीय संस्कृति में दामाद का मान सम्मान होता है भाई । पैर पूजे जाते हैं इनके । मुरादाबादी लोटा बेचने वाले दामाद साहब को कुछ पता भी नहीं है और लोग हैं कि बातें बना रहे है । दामाद बाबू घोटाला कैसे कर लेंगे ……सुना है वे तो कोई काम ही नहीं करते राहुल बाबा की तरह । अब जो आदमी कोई काम ही नहीं करता वो कमीशन कैसे खा जायेगा ?  रही बात जमीन की ……. तो सस्ता खरीदने या महंगा बेचने पर कोनऊ पाबंदी है का । लोकतंत्र है भाई देश में …… अजादी है सबको व्यापार करने की । गलत बात । दामाद जी का कुछ तो लिहाजा करो भजपईयो !
वास्तव में भारतीय संस्कृति में दामाद चाहे कितना ही निठल्ला क्यों न हो, पूजनीय होता है | सोनिया जी को लोग भले विदेशी कहें लेकिन उन्हें भारतीयों की इस परंपरा का गहराई से ज्ञान और भान है कि दामाद को कैसे सर आँखों पर बिठाया जाता है | जय हो!!!

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

ईद मुबारक

 
तुम कहो मुबारक ईद उन्हें, जो मुग़लों के रखवाले थे |
तुम कहो मुबारक ईद उन्हें, जो अकबर जी के साले थे ।1।

तुम उन्हें खिलाओ दूध सिंवई, जिनके पुरखे दरबारी थे ।
तुम मंगल गान करो उनका, जो बेटी के व्यापारी थे |2|

तुम कहो मुबारक ईद उन्हें, सिंहासन बचा लिया जिसने |
केसरिया बाना मुस्लिम के, चरणों में झुका दिया जिसने |3|

तुम उन्हें खिलाओ दूध सिंवई, जिनके सब दावे टूट गए ।
मुगलों की सेना से रण में, जो क्षमा दान पर छूट गए ।4।

तुम कहो मुबारक ईद उन्हें, जिनमे ठाकुर अंदाज नहीं ।
तुर्कों से डर कर भाई के, सौदे से आये बाज़ नही।5।

तुम मंगल गान करो उनका, जो स्वसुर बन गए यवनों के |
जो निज प्राणों के वशीभूत, विक्रेता बन गए बहनों के |6|

तुम कहो मुबारक ईद उन्हें,जो शिखा कटा कर जिन्दा हैं |
तुम कहो मुबारक ईद उन्हें, जो मूंछ तान शर्मिदा है |7|

हो जय जयकार सदा उनकी, जो यवनों के हम्प्याले थे |
हिन्दू होकर हिन्दू का ही, जो खून चूसने वाले थे |8|

तुम कहो मुबारक ईद उन्हें, जो भारत माँ के लाल बने ।
गोपाल की धरती पर रहकर, जो गऊओं के दल्लाल बने ।9।

तुम कहो मुबारक ईद उन्हें, जो अंग्रेजों के मुखबिर थे ।
जलियांवाला चिल्लाता है वो हिन्दू थे वो हिन्दू थे ।10।
सभी समाज बंधू ईद की मुबारकबाद असली नकली राजपूतों को अवश्य दे

तौमर राजपूत सिंघाडिया

ल मुझे दो व्यक्ति मिले । उनका निहायत पक्का अर्थात शुद्ध काला रंग उनके अनार्य रक्त को दूर से ही प्रमाणित कर रहा था । निश्चय ही वे किसी अन्त्यज अथवा शूद्र जाति के रहे होंगे । जिज्ञासावश मैं उन्हें देख कर ठिठक गया । वे किसी काम से बैंक आये थे । मैं भी एक चैक के क्लीयरेंस के सिलसिले में बैंक आया था । स्वभावतः मैंने उन्हें बुलाकर कुशलक्षेम के पश्चात उनका परिचय ,कार्यक्षेत्र और जाति के विषय में पूछा । मेरी जोरदार हंसी छूट गयी जब उन्होंने अपने आपको सिंघाडिया तौमर राजपूत जाति का बताया । मैंने अनजान बनते हुए कहा कि ये सिंघाडिया कौन सी जाति होती है तो वे कहने लगे तौमर राजपूत । मैंने कहा तौमर राजपूत या तौंगड़ राजपूत ? अब बारी उनके हक्के बक्के रहने की थी ।
दरअसल हिमालय के तलहटी से सटे तराई क्षेत्र में नदियाँ सीधे पर्वतों से उतर कर वनक्षेत्र में पसर जाती थीं जिस कारण यहाँ जंगलों और दलदली भूमि का बाहुल्य था । आजादी के पश्चात एक दर्जन से अधिक बाँध बन जाने के कारण नदियों ने अपना मार्ग बदल दिया और पुराने नदी मार्गों पर बड़ी बड़ी झीलें और तोड़ बन गए जो कालांतर में तालाबों में परिवर्तित हो गए । मछुआ समुदाय के जिन जातियों के लोग इन तालाबों में मछलियों का शिकार करते थे.....वे स्थानीय बोली में तुराहे धीमर कहलाये और जो लोग इन तालों में बंद ऋतुकाल में सिंघाड़े की बेल डालकर सिंघाड़ा उत्पादन करते थे वे सिंघाडिये कहलाये और इन तालाबों पर काबिज आश्रित होते गए। ये जल श्रमिक सिंघाड़ा उत्पादन में माहिर होते हैं और ट्यूब अथवा तौमे पर बैठकर दिनभर तालाब में तैरते रहते हैं । नंगे बदन दिनभर धुप में रहने के कारण इनका शरीर काला हो जाता है , ज्यादा समय गंदे पानी में रहने के कारण इनको चर्मरोग या त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ अधिकांशतया हो जाती है । इनके पास इसका एक घरेलू उपाय भी है…राख मलकर ये अपन त्वचा सम्बन्धी उपाय भी कर लेते हैं । चूँकि पिछड़ी जातियों में स्वयं को राजपूत कहलवाने की प्रवृत्ति आरम्भ से ही हावी थी अतः ये स्वयं को तौमर राजपूत सिंघाडिये कहलाते थे ।  ये जाति सामाजिक रूप से ग्रामीण परिवेश में लोध राजपूतों , सैनी और खडगवंशी राजपूतों यानि खागी कश्यप से काफी घुली मिली रहती थी  वे लोग इन सिघाडियों को छेड़ने अथवा चिढाने के लिए तौंगड़ राजपूत भी कहते थे ।
उन दोनॉ ने बताया कि वे बीस साल से एक बड़े तालाब पर काबिज थे जो उन्हें मुलायम सिंह जी की पिछली सरकार में वर्ष 94 में स्थानीय विधायक स्व० ज्ञानी हरिन्दर सिंह जी की सिफारिश पर दिया गया था ।  उस समय तालाब मात्र 6000 रुपयों में मिला था जिसका दस वर्ष बाद प्रथम रिन्यूवल 10000 रुपयों में हुआ , अब की बार रिन्यूवल 18000 रूपये में हो रहा था , उनके पास इतने रूपये की व्यवस्था नहीं थी नतीजतन उन्होंने तालाब का पट्टा बजरिये बयनामा कतई एक मुसलमान को रजिस्ट्री कराकर 1,30,000 रूपये में बेच दिया और उत्तराखंड जाकर भूमिहीनों में नाम लिखा आये और मकान भी वहीँ ले लिया । मैंने कहा तालाब बेचने की क्या जरूरत थी , तुम तालाब से 150 रूपये महीने यानि 5 रूपये रोज की भी बचत कर लेते तो दस वर्ष के 120 महीनों में 18000 की रकम जमा कर लेते । बोले खर्चा ही इतना है … बचत कहाँ से करें । मैंने समझाया बचत छोडो …बीडी पीना ही छोड़ देते तो 5 रूपये रोज जमाकर तालाब बचाकर ले जाते । वे निरुतर हो गए । मैंने बात सँभालते हुए पुनः कहा …. बेचना ही था तो अपने किसी मछुआ भाई को ही देते । वे कहने लगे किसी मछुआ जाति के व्यक्ति के पास इतने रूपये नहीं थे जो इस कीमत पर खरीद पाता । मैंने पुनः कहा किसी अन्य हिन्दू जाति को ही दे देते । कोई अन्य हिन्दू इस काम को नहीं करना चाहता …उनका बेलौस जवाब था ।
मैंने उन्हें बताया कि हमारे पास दो तालाब हैं, क्या उसमे वे सिंघाडे की बेल मजदूरी पर डाल सकते हैं ?  उनका जवाब था उन्हें ये काम आता ही नहीं है । अब चौंकने की बारी मेरी थी ,मैंने पूछा.....काम नहीं आता तो बीस साल से तालाब का क्या कर रहे थे ? वे बोले …मुसलमान को किराए पर दे रखा था । मैंने कहा मुसलमान क्या करता था तुम्हारे तालाब का। बोले……धीमरों से मजदूरी पर मछलियाँ मरवाता था । मैं अब झुंझलाने लगा । मैंने प्रतिप्रश्न किया ......... ये कार्य तो मछुआरों से आप स्वयं भी करवा सकते थे। वे बोले...... स्साले हमारे कहने से तैयार नहीं होते थे । बिरादरी की मजदूरी करने में शान घटती है न…। मुसलमान गाली बककर उनसे खूब काम कराता था । मैंने जानना चाहा कि फिर आपका क्या काम धंधा था। वे बोले नदी घाट पर खीरा, ककड़ी, तरबूज, खरबूज की पालेज बोते थे। मैंने शंकित होकर जाना चाहा किसकी भूमि पर ? वे सहज भाव से बोले मुसलमान की ।
मैंने अपना सर पीट लिया ।
जो समाज अपने अधिकार को खोकर सोया ही रहेगा और हाथ आये अवसर को यूँ ही छोड़ देगा साक्षात् ब्रह्मा भी उसका कल्याण नहीं कर सकते । मेरे Android फ़ोन का बैटरी बैकप जाता रहा अन्यथा उनकी फोटो खींचकर जरूर प्रकाशित करता ।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

दूर हटो ऐ आर्य विदेशी !

स्वामी होकर सेवक रहना, हमको नहीं गवारा है ।
दूर हटो ऐ आर्य विदेशी ! भारत वर्ष हमारा है ।।

हम भारत के मूलनिवासी , एकलव्य बन जायेंगे
हम लेंगे अर्जुन से बदला, हाथ काट ले जायेंगे
पक्षपाती गुरु द्रोण भी हमसे, हरगिज़ बच न पायेगा
कल अंगुष्ठ लिया था जिसने, गर्दन दे के जायेगा
हिन्दू होकर हिन्दू का, शोषण इतिहास तुम्हारा है ।

दूर हटो ऐ आर्य विदेशी ! भारत वर्ष हमारा है ।।

नदी घाट और ताल हमारे, पूँजीवाद के नाम हुए ।
हुए बेदखल मछुआ वंशज, पैतृक हक़ नीलाम हुए ॥
बोली लगती रही हमारे, सदियों के अधिकारों पर ।
और घबराये खड़े रहे हम, बेबस बने किनारों पर
इन्तजार करते हैं फिर कोई, राम पलट कर आएगा
हमें हमारी अंधभक्ति का, मोल वहीँ दे जायेगा
रामसखा के शत्रु  बनकर कहें राम अवतारा है ।

दूर हटो ऐ आर्य विदेशी ! भारत वर्ष हमारा है ।।

भूल ना करना, नहीं समझना, अब निषाद बँट जायेगा
जो थोडा सा बचा कुहासा, अति शीघ्र छंट जायेगा
फिर देंखें किसमें दमखम है, जो टकराने आएगा
साहस की अब अग्निपरीक्षा, हाँ निषाद जुट जायेगा
सत्ता चाहे कुछ भी कर ले, अब अधिकार न छोड़ेंगे
हम अपनी ताक़त के बल पर, दरिया का रुख मोडेंगे।
हम निषाद जंगल के वासी, जल पर राज हमारा है ।

दूर हटो ऐ आर्य विदेशी ! भारत वर्ष हमारा है ।।

कापीराईट @ अरुणकुमार तुरैहा

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

नए सामाजिक नामकरण और सामाजिक परिवर्तन

दि कालीन भारत का मूल निवासी समाज विदेशी आक्रान्ताओं का सदैव शिकार हुआ और विदेशी आक्रमणकारियों के हमले से यहाँ की मूल निवासी जातियों की संस्कृति , भाषा, कला ,साहित्य , वेशभूषा ,बर्तन ,भवन निर्माण कला और संगीत तक प्रभावित होते गए।   आर्यों के हमले से लेकर शक ,हूण, मंगोल ,मलेच्छ , यवन और अंग्रेजों तक ने हमारी संस्कृति को न केवल प्रभावित किया बल्कि उसे बदल भी दिया

 विदेशी लोगों के आने पर सबसे पहला परिवर्तन बोली पर पड़ा। नई भाषा की वजह से लोगों के उच्चारण बदलते गए और नए शब्दों का चलन समाज में बढ़ गया फलस्वरुप एक ही शब्द के कई समानार्थी ,समवाची अथवा पर्यायवाची विकसित होते गए। बाद में उनके रूप और भी ज्यादा बिगड़ने लगे और अपभ्रंशों की भरमार होती गयी।
यहीं से मछुआ जातियों के नामकरण में मल्लाह , कहार जैसे विदेशी शब्द प्रचलन में आये जो हमारी मूलभूत निषाद संस्कृति के प्राचीन नामों, जिनमे धीवर, कैवर्त , केवट, मांझी, मछुआ प्रमुख थे , पर भारी पड़ते गए और मूल नामों में समाहित होने के बजाय उन्हें परिभाषित कर उनका प्रतिनिधित्व करने लगे। कालांतर में इनमे शिक्षित-अशिक्षित,ग्रामीण -नगरीय, परिष्कृत -देशज ,तत्सम -तद्भव के विभेद भी सामने आते गए और मछुआ समाज लगभग सौ नए नामों से अपनी पहचान गढ़ता गया। वास्तव में समाज के ये नए नाम भारत के बदलते नेतृत्व की भाषा के अनुसार ही ज्यादा प्रचलित हुए। 

बाद में विषम पारिस्थैतिक एवं आर्थिक परिस्थितियोंवश परम्परागत व्यवसायों  के बंटवारे अथवा आजीविका हेतु नए रोजगार के साधन अपनाने के कारण भी मछुआ समाज को नए नामों से जाना गया।  हालाँकि इन नए नामों का परिवर्तन भी समाज पर पड़ा और समाज में बदलाव भी द्रष्टिगोचर हुआ | कहीं नए नामों के फलस्वरूप स्थितिजन्य सामाजिक बदलाव देखा गया तो कहीं सामाजिक स्तरोन्न्यन नए नामकरण की वजह बना | निरंतर परिवर्तनशील भारतीय सामाजिक व्यवस्था में समाज के हर स्तर में परिवर्तन देखे गए जिसकारण जातियों के बड़े समूह छोटे समूहों में विभक्त होते गए और हर बार एक नए नाम के साथ स्वतंत्र पहचान बनाते गए। उपजातियाँ विकसित होने लगी और मूल जातियों से प्रथक आस्तित्व बनाती गयीं। इसके दो कारण रहे ,

1 अस्पर्शता यानि अन्त्यज जातियों के घृणित पेशेजनित लोकव्यवहार सम्बन्धी निर्योग्यता।
2 औद्योगिककरण के फलस्वरूप मूल आजीविका में आये परिवर्तन।

अब तक गोत्रहीन कहे जाने वाले समाज भी अब अपना गोत्र दूंढ लाये और समाज के नए नामकरणों की दिशा देखादेखी तय होने लगी

सोमवार, 29 जुलाई 2013

सम्राट अशोक और मछुआ समुदाय

12 वीं शताब्दी में कल्हण कृत राजतरंगिणी में स्पष्ट उल्लिखित है कि सम्राट अशोक की पांच पत्नियाँ थी जिनमे 1 -देवी ,2-आसन्दिमित्रा , 3-तिष्यरक्षिता , 4-पद्मावती और 5- कौरवाकि जालौक थी । इनमे  कौरवाकि जालौक कलिंग राज्य की मछुआ समुदाय की धीवर जाति की थी । धीवर कन्या के सौन्दर्य पर मोहित होकर अशोक ने उसे मान सम्मान सहित अपनी रानी बनाया ,  अशोक को अपनी इस धीवर रानी से तीवर (तीव्र ) नामक पुत्र की प्राप्ति हुई
फिल्म अभिनेता शाहरुख़ खान द्वारा अभिनीत फिल्म अशोका दी ग्रेट में करीना कपूर ने मछुआ कन्या अशोक पत्नी कौरवाकि जालौक की भूमिका को परदे पर जीवंत किया था ।
इसके अतिरिक्त इतिहास में पूरण कश्यप और कश्यप मातंग भिक्षुक का भी जिक्र मिलता है । जिनके बारे में  इतिहास में लिखा है कि जैन दर्शन से प्रभावित पूरण कश्यप घोर अक्रियावादी था और उसने कर्मफल सिद्धांत का विरोध किया । उसके अनुसार मनुष्य के अच्छे बुरे कर्मों का कोई फल नहीं होता । वहीँ बौद्ध मत से सम्बद्ध कश्यप मातंग भिक्षुक का बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चीन जाने का उल्लेख भी है ।
हर्यक वंश के अजातशत्रु के शासन काल में प्रथम बौद्ध महासंगीति राजगृह ,बिहार में संपन्न हुयी थी जिसकी अध्यक्षता महाकश्यप भिक्षुक ने की ...हालाँकि इनमें से किसी भी कश्यप का वर्तमान मछुआ वंशजों से सम्बन्ध प्रमाणित नहीं हो सका है ।

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

ऐतिहासिक भूल या अक्षम्य अपराध ..!

च बात तो ये है कि आरक्षण केवल अछूतों के लिए दस वर्ष हेतु ही घोषित किया गया था । उस समय पिछडा वर्ग या जाति जैसी संकल्पनाएँ नहीं थी । 1931 की जनगणना के पश्चात पूना पैक्ट के आधार पर 1933 में Untouchable एंड Depressed Castes की सूची तैयार की गयी और उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व हेतु सरकारी सेवाओं में आरक्षण अनुमन्य किया गया । संविधान आदेश 1950 जो कि अनुच्छेद 341 (1 ) के आधार पर पारित किया गया था , उसमे अनेकों जातियों ने शामिल होने अथवा निष्कासन का प्रत्यावेदन दिया .......कुछ जातियों ने तो उस समय इस आदेश का इतना विरोध किया कि संसद भवन के आगे धरना प्रदर्शन व हड़ताल कार्यक्रम तक कर डाले । अत्यंत खेद जनक रहा कि इसके विरोध में कश्यप राजपूत सभा पंजाब सबसे आगे रही। यादव, कुर्मी, लोध ,नाई ,हलवाई गडरिया गूजर जातियों ने भी प्रस्तावित आरक्षण में अपनी जातियों को भंगी ,चूहड़ा ,चमार, खटिक ,नट , धोबी के साथ रखे जाने पर घोर आपत्ति जताई और अपने आप को उस सूची से निकलवा कर ही माने । इस आपत्ति का प्रमुख कारण इन जातियों की तथाकथित राजपूती मर्यादा , फर्जी और तथ्यहीन राजशाही प्रष्टभूमि की झूठी शोबाजी रही ।
किन्तु पांच वर्षों में इन पिछड़े वर्गों की आँखें फटी की फटी रह गयीं जब चूहड़े ,चमार अफसर बनकर इनके सरों पर सवार हो गए और झोलाछाप फर्जी ठाकुरों को उन्हें उल्टा सलाम बजाना पड गया । अब खिसियाये पिछड़े भी अपने लिए आरक्षण चाहते थे सो काका कालेलकर आयोग बनाकर सरकारों ने कमीशन ..कमीशन का खेल खेला और ये खेल मंडल आयोग लागू होने तक बदस्तूर जारी रहा । सच्चाई तो ये है हमारा समाज मंडल आयोग की लड़ाई के वक़्त भी आराम से घर में लेटा था ...और यादव - कुर्मी जातियां अपने अधिकारों और आरक्षण की लड़ाई सड़कों पर लड़ रही थी .....तब  पिछड़ों की इस लड़ाई में अनुसूचित जातियों का भी सहयोग रहा था ...क्योकि सवाल आरक्षण व्यवस्था के आस्तित्व का था ।
अत्यंत दुर्भाग्य पूर्ण है कि 1949 -1950 में कश्यप समाज के पुरोधाओं द्वारा किये गये अपराध से समाज से छूटी ट्रेन आज भी हमारे हाथ नहीं आ सकी हैं । 

रविवार, 14 जुलाई 2013

हमारे युवा कब महसूस करेंगे ?

पुरातात्विक विश्लेषकों के अभिमतों की विवेचना कर मछुआ समुदाय का इतिहास लोगों के सामने रखों तो असलियत स्वीकारने में हिचकते है ...कहते हैं हम तो राजपूत थे । इतिहासकारों के सौ डेढ़ सौ साल पुराने तथ्यों का उल्लेख कर भारत की आदि निवासी मछुआ जाति पर कुछ लिखो तो कहते हैं .... हमारे दादे परदादे क्या थे ...हमें नहीं पता ....हम कश्यप हैं और महर्षि कश्यप की संतान हैं । हमारी साठ हजार परदादियाँ थी । धीवर, कहार, केवट ,मल्लाह के नाम से चिढने वाला समाज आज अपनी असलियत को भूल आधुनिकता की तथाकथित चादर तान सो जाना चाहता हैं । युवा कहते हैं ..हमें आरक्षण की क्या जरूरत हैं ..हम अपनी मेहनत से ही सब कुछ पाना चाहते हैं । आरक्षण तो भंगी और चमार या उनके समकक्ष होने की पहचान है । ज्यादा कहो ..तो कहते हैं ....हमें OBC का आरक्षण मिल तो रहा है ...क्या परेशानी है ?
विरोध नहीं करने की आदत ने हमारे अन्दर ही हमारे शत्रु पैदा कर दिए है ...जो विरोध करने वाले के पीछे लग जाते हैं और आपस में टांग खींच कर खुश होते हैं । सरकारें मनगढ़ंत निर्णय कर हमें और नुक्सान पहुंचा रही हैं ...हम एकता का ही रोना रोते रहे ।
वस्तुतः निषाद, केवट ,मांझी ,  मल्लाह , नाखुदा , जहाजी , एक ही शब्द हैं, लिहाजा एक जाति हैं । जबकि वास्तव में ये शब्द भाषाई एतबार से अलग है । निषाद संस्कृत का शब्द है ..जबकि केवट और मांझी उसी के हिंदी रूपांतर हैं ..इसी प्रकार मल्लाह उर्दू का शब्द हैं जबकि नाखुदा और जहाजी इसी के फारसी रूपान्तर है । इसी को अंग्रेजी में बोटमैन या फैरीमैन कहते हैं तो क्या एक ही अर्थ वाले सभी शब्द अलग अलग हो गए ? और अलग अलग जाति या प्रकार हो गये ... बिखरते गये ।
इसी प्रकार कहार शब्द उर्दू है जो कुलीगिरी काम काम करने वालों के लिए प्रयुक्त किया जाता था ..जिसे अमीरों ने पालकियों के वाहकों से जोड़ दिया । वास्तव में ये भी संस्कृत के स्कंधकार से बना हैं । इसी प्रकार धीवर धैवर्त से उद्धरत ..तत्पश्चात धीमर ,झीमर झिम्मर चिम्मड़ के रूप में अपभ्रंशित हैं । सरकारों में बैठे आठवाँ पास बाबू इन्हें अलग अलग मान कर क्रम संख्याएं बाँट रहे हैं ....और नित नई व्याख्याएं पेशकर रहे हैं । समाज बंटा जा रहा हैं .....हमारे लोग अपना अतीत राजवंशों और रजवाड़ों में तलाशते घूम रहे हैं । 

मेरे सामने टीवी पर मोदी का पुणे के फर्ग्युसन कालेज में दिया व्याख्यान लाइव चल रहा है ...चीन का भय दिखा कर ही सही ......मोदी जी लोगों को एक जुट करने का आह्वान कर रहे हैं ...और इसमें युवाओं को महत्त्वपूर्ण बता रहे हैं ..विश्व व्यापार में भारत की ऐतिहासिकता और हमारी प्राचीन मरीन इंजीनियरिंग का हवाला  देकर मोदी भाई ताली बजवा रहे हैं ....पता नहीं हमारे युवा मछुआ समाज का गौरव और एकजुटता की आवश्यकता कब महसूस करेंगे ?

शनिवार, 13 जुलाई 2013

कांग्रेस सन सैतालिस से हमें ठग रही है !


क्या मछुआरों को उत्तर प्रदेश सरकार के प्रस्ताव पर SC आरक्षण मंजूर करते ही केंद्र सरकार गिर जायेगी .........श्री प्रकाश जायसवाल को इतना बड़ा झूठ बोलने तनिक भी शर्म नहीं आई ...और बेहयाई से मछुआ समुदाय को ब्लैक मेल करते हुए मंत्री जी पूर्ण बहुमत की सरकार हेतु वोट मांगते हुए कहते हैं कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाओ तो SC स्टेटस मिलेगा । अगर ये सच है कि मछुआरों को SC  आरक्षण देते ही केंद्र सरकार गिर जायेगी तो कांग्रेस के इस मंत्री को उन लोगों के नाम भी उजागर करने चाहिए जो मछुआ आरक्षण पर कांग्रेस सरकार का विरोध कर रहे हैं और सरकार गिराने की हैसियत में भी हैं । उनके नाम और चेहरे सामने आ जायेंगे तो मछुआ समुदाय को आरक्षण विरोधियों से जूते की चोट पर सड़कों पर निबटने में आसानी होगी ।
दरअसल कांग्रेस और उसके मंत्री फर्जी बात बोलने में और मछुआ जातियों को गुमराह करने में महारत रखते हैं और हमारे लोगों को बेवकूफ समझते हैं । ...वे भूल रहे हैं कांग्रेस ने इस देश में 54 साल राज किया है और सदैव मछुआरों को धोखा ही दिया हैं ।
गोंड ,तुरैहा खरवार , मझवार और बेलदार को SC रिजर्वेशन महज नाम भर के लिए दिया । 31 अगस्त 1952 को अपराधी जाति अधिनियम 1871 के विखंडन के उपरान्त जरायमपेशा के तमगे से आजाद हुयी धीमर, केवट ,मल्लाह बिंद जातियों को उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति में आज तक शामिल नहीं किया जबकि उसके साथ दर्ज रही भांतु , बाबरिया , बेडिया, नट , चिड़ीमार ,बहेलिया , साँसी सहारिया को तत्काल ही SC सूची में शामिल कर लिया गया । कांग्रेस हमेशा से ही मछुआ जातियों के प्रति अपना दुश्मन नजरिया प्रदर्शित करती आई हैं । वस्तुतः इसके पीछे कांग्रेस नीत तथाकथित आजादी की लड़ाई का श्रेय लेने की होड़ रही जिसमे मछुआ समुदाय की जातियों ने राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस और गाँधी की चाटुकारिता करने से इनकार कर दिया था और उग्र दल के साथ रहे ...नेहरु ने हमेशा ही इन जातियों को समाज विरोधी माना और वे इन्हें मुख्यधारा से दूर रखने के हिमायती रहे .....
गाहे बगाहे कांग्रेस नेहरु गाँधी की उसी सड़ी गली परंपरा को कही न कहीं आज भी ढोने का प्रयास करती नजर आती हैं  ।

शनिवार, 6 जुलाई 2013

आप भी यहाँ से विलुप्त हो जाएँ .....।

 दुनिया के किसी शब्द कोष में मांझी ,मल्लाह और केवट की व्याख्या भिन्न नहीं है और सभी एक दुसरे के पर्यायवाची हैं । लेकिन हमारी सरकारें इन्हें अलग अलग मानती हैं । समाज कल्याण के एक बाबू चुटकुला सुनाते हुआ कहते हैं कि बाबू की मारी हलाल होती है । यानि बाबू जो चाहे कर सकता हैं ...लिख सकता हैं । यह देश और इसके अफसर बाबुओं की सलाह पर चलते हैं .......अफसर अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते , फंसने से डरते हैं न । बाबूजी कहते हैं ......हमारी मर्जी ...हम जैसी चाहें व्याख्या सचिवालय से निकालें ...जिले के अफसर उसकी पटरी बनाकर रेल दौड़ाते नजर आएंगे । हम Majhi को मजही लिखेंगे ......कोई हमारा क्या उखाड लेगा । हम माँझी और मजही का भेद दुनिया को सिखायेंगे ....कोई हमारा क्या कर लेगा ? हम अंग्रेजी में लिखे MAJHI शब्द का उच्चारण भूलकर भी माझी नहीं करेंगे ...जब भी लिखेंगे मजही लिखेंगे ? हमने परीक्षा पास की है ..कोई ऐसे तो थोड़े बैठ गए हैं इस कुर्सी पर ...संविधान की जनकारी है हमको । दुसरे बाबू पान की पीक थूकते हुए बोले ......केवट और मल्लाह अलग अलग है ....हम प्रमाणित कर सकते हैं । हम कहे कैसे ? तो बतियाने लगे ...केवट गरीब होता है सो अकेला नैया खेता हैं ...यानि उसकी नाव छोटी होती है ....इस प्रकार केवट एक इकाई है अतः मल्लाह से प्रथक हैं । जबकि मल्लाह समूह में काम करते हैं ...मल्लाहों पर बड़ी बड़ी नावें होती है जिसे दस बारह लोग खेते हैं । समूह में रहने के कारण ये लोग चोर उचक्कई भी खूब करते हैं ....नाव खरीदना आसान काम नहीं है ....जाहिर सी बात है मल्लाह पेशा करने वाली मल्लाह एक मालदार कौम हुयी । मांझी को कोई आरक्षण नहीं मिलेगा .......मिलेगा भी तो केवट वाला OBC का .......। मजही के आरक्षण से दूर रहो सालो।
हमने कहा तुम्हारा दिमाग खराब है । वो बोले आप MBBS डाक्टर होते तो आपका तर्क मान लिया जाता ...लेकिन आप सडकछाप हो ..सडक पर जाओ और चिल्लाओ ....।
हमने कहा तुमभी तो मोची हो .....चमार बने बैठे हो ....मोची जाति पिछड़ी जाति में आती है ...चाहे तो लिस्ट देख लो OBC की यूपी वाली । जब पिछड़ी जाति का मोची ...चमार कहलवा कर SC का आरक्षण झटक सकता है तो मल्लाह को मझवार क्यों नहीं माना जा सकता है ? वे बोले मझवार यूपी में नहीं पाए जाते ....हमने कहा तो कहाँ पाए जाते हैं .....? कहते हैं द्रविड़ियन कास्ट थी ....विलुप्त हो गयी ।
आप भी यहाँ से विलुप्त हो जाएँ .....। फिर चार पांच बाबू आस्तीने चढ़ाये ....मरने मारने का जज्बा लिए आ धमके ...मुझे शौचालय में घुस कर जान बचानी पड़ी ।

रविवार, 9 जून 2013

अंतर्विरोधी आरक्षी स्वाभाव

दैनिक जीवन में हम प्रायः देखते हैं कि किसी चलती रेलगाड़ी में कोई भागता हुआ आता है किसी डिब्बे में चढने का प्रयास करता है तो उस डिब्बे में पहले से मौजूद भीड़ उसे घुसने से रोकना चाहती है ,दरवाजे पर डिब्बे में घुसने से रोकने वालों में सबसे आगे हो जाता है ।
पहरेदार की तरह खड़े लोग रास्ता नहीं देते और कहते हैं .....कहाँ चढ़े चले आ रहे हो भाई ? देखते नहीं पहले से फुल हैं .....आदमी के ऊपर आदमी चढ़ा हुआ है ..कतई जगह नहीं है ...पीछे निकल जाओ ..पूरे पूरे डिब्बे खाली है । लेकिन वह व्यक्ति नहीं मानता है और आखिरकार चिरौरी कर जबरदस्ती घुसने में कामयाब हो जाता है ...फिर आगे चल कर उसे वहीँ सीट भी मिल जाती हैं । किन्तु आश्चर्य जनक से अगले स्टेशन से वह व्यक्ति भी डिब्बे में घुसने वालों का विरोध करने लगता है और

सार यह है ....हम स्वयं आरक्षण तो चाहते हैं लेकिन दूसरो के आरक्षण का विरोध करते हैं । सभी हिन्दू लोग ... दलित ईसाईयों और मुसलमानों के आरक्षण का विरोध करते हैं । सवर्ण हिन्दू .... दलितों और पिछड़ों के आरक्षण का विरोध करते हैं , जबकि इसके उलट वे स्वयं आर्थिक रूप से आरक्षित होना चाहते हैं । इसी प्रकार दलितों में साठ साल से आरक्षण का आनंद उठा रही एक दो जातियों किसी अन्य जाति को किसी भी कीमत पर नहीं घुसने देना चाहती । पिछड़ी जाति की ताकतवर जातियां ..अति पिछड़ों को अलग से कोई कोटा नहीं देना चाहती । दलितों पिछड़ों अल्पसंख्यकों के आरक्षण का विरोध करने करने वाली सवर्ण नारियां सबसे पहले महिला आरक्षण का लुत्फ़ चाहती हैं ...अर्थात जो स्वयं आरक्षित है या होना चाहता है वह दुसरे के आरक्षण पर विरोधी सुर निकालता है और उसे गैरवाजिब बताता है ।
मजेदार बात ये है कि अपने आरक्षण के समर्थन में और दुसरे के आरक्षण के विरोध में सबके अपने अपने दावे और प्रतिदावे हैं । अपने आरक्षण पर सबके सुर एक समान हैं ...कोई अंतर नहीं । एक सवर्ण दलितों के आरक्षण पर मुंह बिचका कर कहता है ....."सालों को सब कुछ फ्री में चाहिए , बिना मेरिट में आये नौकरी चाहते हैं "। आश्चर्य जनक रूप से सवर्ण की यही भाषा दलितों के आरक्षण का मजा ले रही मायावती की जाति के लोग ....उन वंचित और उपेक्षित दलितों से बोलते है जिन्हें आरक्षित सूची में होने के बाद भी साठ सालों से कुछ नहीं मिला .....यानि मेरिट राग ....शैक्षिक गायन ।

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

प्रश्न धीमी आंच पर सेके हुए हैं.....!!

झूठ का हम आवरण पहने हुए हैं ।
क्या करें ...हम जान कर बहरे हुए हैं ॥  
आर्थिक मुद्दों पे चिंतन कर रहे है ।
कौन कहता है कि वो लेटे हुए हैं ॥
सुर्ख़ियों में आई क्या दिल्ली की दहशत ।
गाँव के बच्चे भी अब सहमे हुए हैं ॥
आज महिला संगठन की है समीक्षा ।
आप सर्किट हाऊस में ठहरे हुए हैं ॥
रख दिए बच्चों ने खुद ही दाम सुनकर ।
अब खिलौने इस क़दर महंगे हुए हैं ॥
हम यहाँ बेजान सी मूरत के आगे ।
चंद सिक्कों की तरह फेंके हुए हैं  ॥
लाजमी है स्वाद मुद्दों में हमारे ।

प्रश्न धीमी आंच पर सेके हुए हैं ॥
आपका अनुरोध फिर से मान लेता ।
बंदिशें कुछ हैं, जो बस रोके हुए हैं ॥
बर्फ रिश्तों पर जमीं पिघली हुयी हैं । 

और वो भी आजकल बदले हुए हैं ॥

कापी राईट @अरुण कुमार तुरैहा

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

......जानते हैं

सअले अहले हुकूमत जानते हैं ।
कौन क्या, किसकी है कीमत जानते हैं ॥
आप नाहक ही यहाँ चिल्ला रहे हो ।
चुप रहो !  सब माबदौलत जानते हैं 
आप माथे की शिकन को क्या पढेंगे ?
आप बस लिक्खी इबारत जानते हैं ॥
मुफलिसी को आप तोहमत दे रहे है ।
हम मगर इसकी हरारत जानते हैं ॥
मुझको तेरी आदतें बतला रहे हैं ।
तुझको जो मेरी बदौलत जानते हैं ॥ 
आज भी तनहा हूँ मैं, उनसे बिछुड़ कर ।
और वो मेरी शराफत जानते हैं ॥ 
आशनाई है मुसलसल रौशनी से  ।
हम अंधेरों की सियासत जानते हैं ॥
शौक से करिए शिकायत आप लोगो ।
हाकिमों की वो रवायत जानते हैं ॥ 
जुर्म करते हैं मगर फंसते नहीं हैं ।
वो तरीका ए अदालत जानते हैं ॥
आज हर लीडर को देते हैं भरोसा
लोग अब मौका नजाकत जानते हैं ॥

कापीराईट @ अरुण कुमार तुरैहा 

शनिवार, 23 मार्च 2013

आरक्षण का तात्पर्य गरीबी उन्मूलन कदापि नहीं

रक्षण का वास्तविक  उद्देश्य अस्पर्श्य एवं शूद्र जातियों की मूल आजीविका में परिवर्तन लाते हुए सामाजिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न बनाना हैं। यह एक संविधान सम्मत व्यवस्था है । यह शूद्रों को गाँधी अंबेडकर समझौते के तहत भारत में रहने का ईनाम हैं , शूद्रों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने की गारंटी है और व्यवस्था में भागेदारी की शर्त है । निसंदेह आरक्षण ने अपनी उपयोगिता को दलितों के मध्य प्रमाणित किया है और पिछले 60 वर्षों में इसके सुखद और प्रत्याशित परिणाम भी परिलक्षित हुये हैं । आज भी आरक्षण उतना ही प्रासंगिक है जितना पचास वर्ष पूर्व था।  इसके बिना आज भी भारत की राज सत्ता और कार्यपालिका में शूद्रो का प्रतिनिधित्व असंभव है । सदियों से उपेक्षा और अपमान का दंश झेलने वाले वर्गों को वर्तमान आरक्षण व्यवस्था ने ही सर उठाकर ससम्मान जीवन जीने का अवसर प्रदान किया हैं ।
कुछ लोग इसे गरीबी मिटाने का उपाय बताते हुए इसे गरीबों को प्रदान करने की वकालत करते हैं । जबकि आरक्षण विशुद्ध रूप से भागेदारी है । यह भूखे लोगों के लिए नहीं है ......यह उपेक्षित, उत्पीडित ,वंचित ,शोषित और बहिष्कृत लोगों को राष्ट्र की मुख्य धारा में समाहित करने का एकमेव उपाय हैं ।  यह गरीबी मिटाने का नहीं बल्कि शासन और प्रशासन में भागेदारी दिलाने का एक मात्र जरिया हैं । यह सदियों से घोर जातिवादी अन्याय का शिकार लोगों के हित में राज्य की ऐसी व्यवस्था है जिसका लक्ष्य उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत करते हुए सामाजिक स्तर पर बराबरी प्रदान करना हैं ।
गरीबी उन्मूलन का कोई भी कार्यक्रम आरक्षण का मुकाबला कदापि नहीं कर सकता । इसमें आर्थिक रूप से संरंक्षण देते हुए छुआछुत की भावना को मिटाने की संकल्पना सन्निहित हैं ।  वास्तव में जो लोग इसे गरीबी मिटाने का जरिया बनाकर पेशकरना चाहते हैं वे असल में इसके स्वरुप को बदलकर समाप्त कर देना चाहते हैं। सवर्ण को किसी भी रूप में मिला संरक्षण उसके जातीय दंभ को ही विस्तार प्रदान करेगा और जातपांत की खाई को और चौड़ा करेगा ।

मैं राहुल से बात करूंगा !!

मैं राहुल से बात करूंगा, दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर से निकल पड़ा हैं, चलने को अंगारों पर ॥

आरक्षण अधिकार हमारा, कब तक हमें दबाओगे ।
थोथी सत्ता के बलबूते , कब तक हमें हटाओगे॥
जिस दिन मछुआ कमर बाँध कर, सड़कों पर आ जायेगा ।
सुनो सोनिया ! दस वर्षों का, महल वहीँ ढह जाएगा ॥ 
मनमोहन इल्जाम न रखना, फिर कोई मछुआरों पर  ।

मैं राहुल से बात करूंगा , दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर निकल पड़ा हैं , चलने को अंगारों पर ॥

जिस सरकार में झूठ बोलकर, नेता काम चलाते हैं ।
जिस सरकार में पद पर बैठे, जिम्मेदार डराते है ॥
उस सरकार में हक की बोली, लगता है दब जायेगी ।
पक्षपात और राग द्वेष की, बात भला कब जायेगी ॥ 
कब तक सत्ता टिकी रहेगी, वादों के आधारों पर । 

मैं राहुल से बात करूंगा , दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर से निकल पड़ा हैं, चलने को अंगारों पर ॥

जिन पर है दायित्व सदन का, वाहन चोर- उचक्के हैं । 
अधिकारी भी शपथ भूलकर, अपनी जात के पक्के हैं ॥
आवाजों की फ़ाइल बनाकर, ढेर लगायें  बैठे हैं ।
सचिवालय में जातिवाद का, फ़र्ज़ निभाये बैठे हैं ॥ 
सरकारी संरक्षण दिखता ,मुझको इन मक्कारों पर । 

मैं राहुल से बात करूंगा , दिल्ली के चौराहों पर ।
मछुआ घर से निकल पड़ा हैं, चलने को अंगारों पर ॥

प्रस्ताव ही नहीं , गंभीर पैरवी भी करे सपा

ब वक़्त आ गया है कि उत्तर प्रदेश में निवासरत मछुआ समुदाय की जातियों को अनुसूचित जातियों में सम्मिलित करने सम्बन्धी प्रस्ताव पर समाजवादी पार्टी केंद्र सरकार से मजबूत पैरवी भी करे।
उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी की अबतक की कार्यशैली और रणनीति समाज के हिसाब से फायदेमंद रही हैं । सपा ने विधान सभा चुनाव 2012 में समाज से वादा किया था कि वह सत्ता प्राप्ति के पश्चात इन जातियों को अनुसूचित जातियों की परिधि में लाएगी और अनुसूचित जाति की सुविधा देते हुए इन जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल भी करेगी । हालाँकि संविधान अनुच्छेद 341 (1) के अंतर्गत यह शक्तियां केंद्र सरकार और संसद में निहित हैं और राज्य सरकार की भूमिका केवल परामर्श एवं संस्तुति सहित आवश्यक प्रस्ताव भेजने तक ही सीमित रहती है ।
गुजरे पूरे दोनों माह इन जातियों के लिए सर्वश्रष्ठ रहे । जहाँ फरवरी में सरकार ने विशाल रैली आयोजित करके इन जातियों के जज्बे को आँका जिस पर ये जातियां भारी पड़ीं और लखनऊ की सड़कों पर आन डटी वहीँ इनकी उमड़ी भारी तादाद से उत्साहित सरकार ने तुरंत केन्द्र सरकार को सिफारिशी पत्र  भेजते हुये शीघ्र ही कैबिनेट की संस्तुति को उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति /जनजाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान की 400 प्रष्टों की आख्या के साथ संलग्न कर प्रेषित किया । इतना ही नहीं पिछली बार के कटु अनुभव से चेतते हुए सपा सरकार ने इस दफा अपने रणनीतिकारों को प्रस्ताव के मूल्यांकन में लगाया और एक उत्कृष्ट प्रस्ताव तैयार कर केंद्र को कार्रवाही के लिए प्रेषित किया । शुकवार को विधान सभा सत्र के अंतिम दिन सदन में ध्वनि मत से संकल्प पास करके को केंद्र सरकार को भेजा। यहाँ तक तो सपा ने अपने काम को देर सवेर ही सही .....भली भांति सही सही  अंजाम दिया । अब सिर्फ केंद्र सरकार को गजट नोटिफिकेशन के माध्यम से सूचना प्रकाशित करनी हैं ।
लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार इस प्रस्ताव को लेकर उतना उत्साह नहीं दिखा रही जितना प्रदेश सरकार और मछुआ जातियों ने दिखाया । कांग्रेस सरकार अल्पमत में है और सपा के समर्थन की बैशाखी पर टिकी है । अब सपा को चाहिए कि वह अपने 24 लोक सभा और 12 राज्यसभा सांसदों के माध्यम से कांग्रेस पर दवाब बनाये और इस प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में जाने से बचाए अन्यथा इस प्रस्ताव के लटक जाने और ठन्डे बस्ते में जाने पर कांग्रेस के साथ साथ सपा भी बराबर की दोषी प्रमाणित होगी । लेकिन हमें सिर्फ सपा के सहारे अपनी लड़ाई नहीं छोडनी होगी बल्कि अपना समर्थन सडक पर उतर कर दिखाना होगा । सारी पार्टियाँ हमारे पीछे खड़ी नज़र आएँगी ।
मेरी राय में सपा के सभी सांसदों को मछुआ समुदाय के लोग पत्र भेजें और बताएं उनकी लड़ाई अंतिम स्तर पर है । जहाँ पर सपा के एक एक सदस्य का समर्थन मायने रखता है । हालाकिं इस मुद्दे पर भाजपा का भी नीतिगत समर्थन है क्योकि उसके चुनावी एजेंडे में भी यह बिंदु था । बसपा से समर्थन की उम्मीद बेमानी है । महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे से जूझ रही कांग्रेस  यदि इस प्रस्ताव को मानकर मछुआ समुदाय को उसका बहुप्रतीक्षित अधिकार उपलब्ध करा देती है तो यूपी में मरणासन्न कांग्रेस को संजीवनी मिल सकती हैं । 

सोमवार, 11 मार्च 2013

आज कलुआ बहुत खुस है


पने गाँव का कलुआ आज बहुत खुस है । डिजिटल जो हुई गवा ।
इंटर पास करते ही कलुआ बस लैपटाप की रट लगाए था । एक एक दिन भारी पड़ रहा था , लेकिन कलुआ ने उम्मीद न छोड़ी । कहता था नेताजी ने कहा है तो करके जरूर दिखायेंगे । आखिर वो दिन आ ही गया । कलुआ जैसे ही लैपटाप ले कर बस से उतरा, पूरा गाँव अड्डे पर उमड़ आया । लोगों ने कलुआ और लैपटाप को मालाओं से लाद दिया । हर कोई कलुआ की तारीफ़ करता चलता था । अपना कलुआ बड़ा होनहार है भाई । गाँव की शान है पठ्ठा । पूरे इलाके में यही तो है जो पहला लैपटाप जीत कर लाया है ।
आज सुबह से ही नहाधोकर कलुआ लैपटाप लिए शान से चौराहे पे बैठा है । जब से हाथ आया है , कलुआ तो एक दम पगला गया है । मारे ख़ुशी के रात भर सो न सका । रात भर में दो बार उठ कर लैपटाप चैक भी किया। सही तो रखा है न ।
 पूरा मोहल्ला कल से कलुआ के घर पड़ा हैं , गाँव के बुजुर्ग, औरतें और बच्चे घर से आगे जाते ही नहीं , बस एक नजर भर कर देखना चाहते हैं लैपटाप को । कलुआ किरकिट ट्राफी की तरह चमका रहा है लैपटाप को हर आधे घंटे में । गाँव में लाईट नहीं थी न , सो  कल ...लैप टाप चल न सका । रात भर भूकन हलवाई की दूकान में चार्ज किये रहा इन्वैटर से । थोडा बैटरी भरते ही गाँव में हल्ला मच गया .... अरे ! लैपटाप चल गया । लैपटाप चलते ही कलुआ के बाप का सीना चौड़ा हो गया । माँ दुआएं मांगती जाती थी कलुआ के लिए । डिस्प्ले पर नेताजी और मुख्यमंत्री जी की तस्वीर उभरते ही तालियाँ बज उठीं । हर कोई तारीफ़ कर रहा था । बुधई काका भी भीड़ में खड़े हैं ....हिसाब लगा रहे है अभी से । अगले साल मेरे भी घर में दो लैपटाप और दो टैबलेट होंगे ।
आज कलुआ के घर ढोलक बजेगी । सुबह से कलुआ की बहने बिरादरी में बुलावा बाँट आई है। पंसारी के यहाँ से 5 किलो बताशे मंगवाए गए हैं बाँटने के लिए ।
 इसी बहाने समाजवादी सरकार ने गाँव गाँव खुशियाँ बाँट दी । 

रविवार, 10 मार्च 2013

मैं क्यों मनाऊँ गणतंत्र ?

मैं क्यों मनाऊँ गणतंत्र ?
न तो हुयी मेरी गणना ,
किसी दौर में कभी ,
और न किसी तंत्र ने ,
समझा मुझे अपना हिस्सा ।
मैं क्यों गीत गाऊँ,
संविधान के ,
जो पल में ,
बदल दिया जाता है औरों के लिए ।
मैं और मेरे लोग ,
बदलाव की चिठ्ठी लिए,
दौड़ते रहे दफ्तर दफ्तर ,
फांकते रहे धूल संसदीय गलियारों की,
और बोलते रहे जिन्दाबाद,
उन बेजमीर मुर्दा लोगों की,
जिन्होंने गणतंत्र के नाम की ,
तोड़ी हैं बस रोटियाँ ही आज तक ।
मेरे हिस्से की धुप,
बना दी गयी जीनत ,
जिनके आँगन की ,
और मुझे पकड़ा दिए गए,
चंद लड्डू ,
बदले में ,
गणतन्त्र के नाम पर ।

सुन ले दिल्ली !!

सुन ले दिल्ली वक़्त हमारा आज नहीं कल आएगा
आरक्षण अधिकार हमारा , और नहीं टल पायेगा

सीमाए सब टूट रही है , बनी ज्वाल अब चिंगारी
जो अब भी वंचित हैं वो सत्ता के असली अधिकारी
साठ वर्ष से मछुआ केवल तेरी डोली ढोता है
छिले हुए काँधे को लेकर अपने मन में रोता है
टूटी नैय्या थका खिवैया भला किसे छल पायेगा

सुन ले दिल्ली वक़्त हमारा आज नहीं कल आएगा
आरक्षण अधिकार हमारा , और नहीं टल पायेगा

हमने तेरे लिए न जाने कितनी गलियां छानी हैं ।
एक ठन्डे झोके की खातिर तेरी शर्तें मानी हैं ।
देख रहा है आज जमाना सत्ता हमको देगी क्या ?
अब तेरे हाथों की ताक़त सब्र हमारा लेगी क्या ?
टालमटोल रवैया तेरा और नहीं चल पायेगा ।

सुन ले दिल्ली वक़्त हमारा आज नहीं कल आएगा
आरक्षण अधिकार हमारा , और नहीं टल पायेगा

द्रोण , तुम मरे नहीं,

द्रोण ,
तुम मरे नहीं,
आज भी जिन्दा हो ।
कुत्ते की तरह ,
जातिगंध सूंघते टाइटिल में,
आज भी कर रहे हो निषाद प्रतिभाओं का दमन ।
सत्ता के नजदीक रहने की चाह ,
निरंतर कटवा रही है तुमसे आज भी अंगूठे ।
गुरुओं का इतिहास कलंकित कर ,
आज भी गूंज रहा है तुम्हारा अठ्ठाहस ,
और तुम आज भी बने हुए हो सम्मानित ।
लेकिन भूल रहे हो तुम ,
बेइमान गुरु का पुत्र कभी पारंगत नहीं होता ,
अश्वत्थामा की तरह आज भी आवारा घूमता है ,
और कटवा कर छोड़ता है नाक ,
बदले में अंगूठे के ।

शनिवार, 2 मार्च 2013

आक्रोश

प कहते हो कि बस ये जोश है ।
जी नहीं, ये बरसों का आक्रोश है ।।

बढ़ रही है हर तरफ बेचैनियाँ ।
और वो दिल्ली में बस मदहोश है ।।

बस पकड़नी थी, सो आँखें मूँद ली ।
वैसे उस घटना से मुझमें रोष है ।।

चीखती है उसकी आखों से व्यथा ।
ये अलग, वो तिश्ना लब खामोश है ।।

सिर्फ ठहराया गया मुजरिम उसे ।
जबकि व्यवस्था का सारा दोष है ।।

अजनबी सा रोज मिलता है मगर ।
वो कभी मेरा भी था, संतोष है ।।

तोमर शब्द की उत्पत्ति

तोमर शब्द की उत्पत्ति तोमा शब्द से हुयी है जिसका अभिप्राय एक पके हुए कद्दू से है । जो पकने के बाद पूरी तरह सूख जाता हैं । मछुआरे इसका डंठल तोड़कर इसके अन्दर का सूखा गूदा निकाल लेते थे और डंठल को उसी जगह वापस रखकर कोलतार से चिपका देते थे । अब यह तोमा एक बड़ी सी फ़ुटबाल का काम करता और पानी में उतराता । इस तोमे की सहायता से आसानी से तैरा भी जा सकता था । यह तोमा झील में डाल कर मछली शिकार हेतु खींचने वाली जाली की उपरी रस्सी से बाँधा जाता था ,जो जाल को पानी में डूबने नहीं देता था । इस प्रकार चालाक मछलियाँ , जो पानी की ऊपरी सतह से एक फिट ऊपर रहकर जाल के डूबने की वजह बच जाती थीं, इसी तोमे के कारण फंस जाती ।
 सीधे और सरल अर्थों में यह तोमा एक प्रकार का ब्लैडर होता था जिसे मछुआरों ने अपनी आवश्यकतानुसार ईजाद किया । इस तोमे को धारण करने वाले और इसका प्रयोग करने वाले मछुआरों ने कालांतर में स्वयं को तोमर लिखना शुरू कर दिया । इसका दोहरा फायदा होता । टाइटिल में जातिगंध सूंघकर पता लगाने वाला ठाकुर साहब या चौधरी जाट समझ कर सलाम ठोकता । समाज के उच्च शिक्षित मछुआ होकर भी मछुआ कहलवाने से बच जाते 
वहीँ दूसरी और तोमर एक अस्त्र का नाम भी है , जिसे चलाने में पारंगत क्षत्रिय राजपूतों ने भी स्वयं को तोमर लिखा ।
लेकिन मछुआ समुदाय के अर्थों में पहले वाली व्याख्या ही सटीक, स्पष्ट और संश्लेषित हैं ।

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

नदी बचेगी .....निषाद बचेगा


नदियों ने बड़ी बड़ी संस्कृतियों को जन्म दिया है । इसलिए विश्व की सभी महान सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुयी है । भारतीय संस्कृति में तीर्थ का बड़ा महत्त्व है और प्रायः सभी तीर्थ जल के बिना अधूरे हैं । अतः सभी प्रमुख तीर्थों की स्थापना नदियों के किनारे ही है या कम से कम किसी न किसी रूप में वहां जल की उपस्थिति अनिवार्य समझी गयी है, चाहे वह स्रोत रूप में हो अथवा ताल / सरोवर रूप में । भारतीय तीर्थ सदैव जल प्रधान रहे हैं।
      मछुआ संस्कृति का विकास भी नदियों के किनारे ही हुआ । सभी प्रमुख नदियों / पोखरों और सरोवरों के किनारे हमारी महान निषाद संस्कृति और परम्परा के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं । किन्तु आज हमारी महान सभ्यता और संस्कृति का सदाजयघोष करने वाली समस्त नदियाँ घोर जल प्रदूषण से पटी पड़ी है । जल प्रदूषण का सीधा सम्बन्ध जल श्रमिकों से होता है उनके धंधे रोजगार से होता हैं । जब हमारी भाग्य रेखा समझी जाने वाली पुण्य सलिलायें ही कुंठित होंगी ..प्रदूषित होंगी तो निषाद कहाँ से संपन्न होगा ? सदियों से लोगों के पाप बहाकर ले जाने वाली सदानीरा कलकलायें या तो अपनी गति को थाम कर सूख चुकी हैं या मात्र मानवीय एवं औद्योगिक अपशिष्टों की संवाहक भर होकर रह गयी है ।गरीबी ,बेकारी और कुपोषण से ग्रस्त नदी संस्कृति के मानने वाले और नितांत नदियों पर आधारित अपनी आजीविका को जल प्रदूषण के जरिये खो देने वालों का गुनाहगार कौन है ? बढ़ते जल प्रदूषण ने मछुआ जातियों को प्रतिष्ठित पारंपरिक धंधे छोड़ने को विवश किया है। औद्योगिककरण के नाम पर हजारों करोड़ डकारने वाली पूंजीपति और बदले में अपना अजैविक अपशिष्ट नदियों में प्रवाहित कर मछुआ समुदाय को निर्धन बनाकर नारकीय जीवन जीने को मजबूर करने वालों को ये हक किसने दिया ? पीड़ित निषादों के पुनर्वास की क्या व्यवस्था है ?
मैं घोषणा पूर्वक कह सकता हूँ कि आज भारत की किसी भी नदी का जल सीधे सीधे पीने योग्य नहीं हैं । मेरे गोकुल भ्रमण के दौरान मात्र 50 रूपये की मजदूरी के लिए दो मल्लाह एक दूसरे से लड़ने भिड़ने को तैयार हो गए। बात सिर्फ इतनी सी थी कि जिसका नंबर था मैंने उससे चलने की बात नहीं की । नाव तैरती थी लेकिन मेरा दिल डूबता उतराता था । दोपहर तीन बजे बोहनी (पहले ग्राहक से प्राप्त रूपये ) तक को तरसने वाला समाज , राष्ट्र की मुख्य धारा में कैसे आएगा ,ये कोई छोटा सवाल नहीं है भाई ।
       यमुना से उठती भयंकर सड़ांध युक्त दुर्गन्ध से सांस रुकी सी जाती थी , नौका में बैठना भी दूभर हुआ जाता था । जी हाँ ! ये वही यमुना थी जिसका पानी पीकर बड़े बड़े निषाद नेता आगे बढ़े । ये वही यमुना थी जिसकी तमाम यादें फूलन देवी से जुडी थी । ये वही यमुना थी जो निषाद दिग्गज जमुना प्रसाद की याद दिलाती थी । ये वही यमुना थी जो उत्तर भारत में सबसे पहले दिल्ली में मल्लाहों की जननी थी। ये वही यमुना थी जिसके बीहड़ में निषाद बागियों को संरक्षण मिला । ये वही यमुना थी जिसका इतिहास निषादों के साथ साथ चला । ये वही फलप्रदा यमुना थी कि जिसके उदगम तक मैं झाँक आया था । ये वही यमुना थी कि जिसका यमनोत्री में इतना मीठा और शीतल जल था कि मैंने इतना अच्छा जल जीवन में कभी नहीं पिया और किसी नदी का इतना निर्मल जल हो ही नहीं सकता।
क्या ये वही यमुना थी ?

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

कांग्रेस पुनः छेड़ सकती है रेणके आयोग का राग


सम्पूर्ण भारत में 193 ऐसी राष्ट्रभक्त जातियां रही हैं जिनमे मल्लाह ,केवट ,निषाद ,बिन्द ,धीवर ,डलेराकहार , रायसिख ,महातम ,बंजारा , बाजीगर ,सिकलीगर , नालबंध , सांसी, भेदकूट , छड़ा , भांतु , भाट , नट ,पाल ,गडरिया, बघेल ,लोहार , डोम ,बावरिया ,राबरी ,गंडीला , गाडियालोहार, जंगमजोगी ,नाथ,बंगाली,अहेरिया,बहेलिया नायक,सपेला,सपेरा, पारिधि ,सिंघिकाट ,कुचबन्ध,  गिहार अथवा कंजड आदि जो विमुक्त या घूमंतू जातियां कहलाती हैं और  Criminal Law Amendment Act 1871 के अनुसार अपराधी जातियां घोषित की गयी थीं । 1871 से लेकर 31 अगस्त 1952 तक ये जातियां अंग्रेजों के बनाये इसी काले कानून का शिकार रहीं और जरायम पेशा का नाम लिए बदनामी की जिन्दगी जीती रहीं । इन जातियों को दूसरे  गावों या शहरों में बसने की इजाजत नहीं थी , अपनी मर्जी का धंधा करने की अनुमति नहीं थी और तो और न्यायालय में भी इन जातियों की सुनवाई नहीं थी । आजाद भारत भी यह जातियां 5 वर्ष 16 दिन भारत वासियों की गुलाम बनी रहीं और
31 अगस्त 1952 को एक सरकारी आदेश के तहत आजाद हुयीं । उस दिन से इन जातियों को विमुक्त जातियों की संज्ञा दी गयी । 81 वर्ष की सरकारी गुलामी और सैकड़ों वर्षों की सामाजिक गुलामी के चलते ये जातियां शैक्षणिक , सामाजिक , आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक रूप से पिछड़ गयीं और आज भी दुनिया की तरक्की से दूर यह जातियां दूसरी जातियों से 64 साल पीछे हैं ।  इन जातियों की आबादी 15 करोड़ से भी अधिक है लेकिन इन जातियों का देश की विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका में कोई समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है , थोडा बहुत जो है भी , तो वो न के बराबर है । आज भी इन जातियों के लोग अशिक्षित ,बेरोजगार, बेकार, बेजार ,बेघर और बेइज्जत हैं और खानाबदोश जिन्दगी जीने को अभिशप्त हैं । इस समाज की तरक्की और खुश हाली के लिए केंद्र सरकार ने 2006 में एक कमीशन बनाया जो रेणके आयोग के नाम से जाना जाता है । इसे राष्ट्रीय विमुक्त/ घूमंतू /अर्ध घूमंतू जनजाति आयोग भी कहा जाता है जिसके अध्यक्ष /चैयरमैन श्री बाल कृष्ण रेणके हैं । इस कमीशन ने केंद्र सरकार को 2008 में अपनी सिफारिशें सौंपी । अत्यंत खेदजनक है कि 5 वर्ष बीतने के बाद भी इस केंद्र की कांग्रेस सरकार रेणके कमीशन की सिफारिशें लागू नहीं कर पाई । 
वास्तव में इस कमीशन की आड़ में केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भेजे गए 2005  में 17 जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने के प्रस्ताव को ठन्डे वस्ते में डालने का कार्य किया। और ये सन्देश देने का कुप्रयास किया कि सिर्फ 17 नहीं बल्कि 193 जातियों का व्यापक हित सोचा जा रहा है , चूंकि ये जातियां बहुत कम संख्यां में हैं, नेतृत्व शून्यप्राय हैं और बिखरी हुयी हैं अतः इन्हें राजनैतिक रूप से एकत्र कर पाना असंभव कार्य है । इस प्रकार प्रस्तावों और आयोगों के ढेर पर बैठ कर राजनीति करने वाली कांग्रेस ने इन जातियां का बहुत बड़ा अहित किया है ।
अब फिर 17 जातियों का उत्तर प्रदेश सरकार का प्रस्ताव केंद्र सरकार पर पहुँच गया है । बहुत संभव है कि इसे पुनः दबाने के लिए मक्कारी और अय्यारी की खाल ओढे केंद्र में बैठी कांग्रेस फिर से रेणके आयोग का शगूफा छोड़ दे । 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

पहले संघ बनाओ फिर ख्वाब देखो !

हम चाहते तो सब कुछ हैं , लेकिन अपने फटे हुये नेकर पर भी गौर नहीं करना चाहते । हमारे युवा क्रांति की बात करते है लेकिन सैकड़ों जातियों और उपजातियों में बिखरे मछुआ समाज को एक जुट रखने पर मौन हो जाते है । मोदी के नाम पर सब एक होने तैयार हैं लेकिन आरक्षण के नाम पर अपने निषाद ही बंटे हुए हैं । हमारे बुजुर्ग जाति और उपजातियां तोड़कर व्याह /शादी सम्बन्ध बनाने की बात करते करते करते बूढ़े हो गए लेकिन इस संभव कार्य को अंजाम नहीं दे पाए । हमारे नौजवान जाति बताने की शर्म के चलते अपने अधिकारों से ही मुंह चुराते नजर आये कि कहीं फर्जी राजपूती शान की कलई न खुल जाए ।
हमारे नेता पार्टियों के प्रवक्ता भर होकर रह गए । पार्टी लाइन से हटकर कहने तक की हिमाकत नहीं जुटा पाए । समाज का विरोध सरकारों में होता रहा और नेतागण पार्टी की नीतियों का बखान करते रहे । समाज की राजनीति नेताओं का निजी स्वार्थ पूरा करने का जरिया बन गयी ।
हमारे लोग अधिकार तो चाहते हैं , लेकिन घर बैठ कर । चारपाई में लेटे लेटे ...रजाई ओढ़कर हक चाहता है मछुआ समाज । मुझे तो लगता है ये समाज सड़कों पे उतरने से डरता है, घबराता है , भय खाता है । कहीं मुकदमा दर्ज न हो जाए । एक चमार ने मुझसे कहा था "तुम्हारे लोग कुछ नहीं कर पाए , बस दारू पीते रहे और तुम्हारी औरतें काम करती रही " । मैं चाहते हुए भी प्रतिरोध न कर सका , उसका जातीय विकास अहम् बनकर बरस रहा था ।
स्वाभिमान किसी पाठशाला में नहीं सिखाया जाता । यह एक संस्कार है , चाह है , जीवन क्रम है । स्वाभिमानी व्यक्ति आंच आने पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है और तो और कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी प्रतिकूल बात पर पलट कर जवाब जरूर देता है । लेकिन जो समाज झूठन खाकर बड़ा हुआ हो उससे बदला, विरोध और विद्रोह की आशा करना व्यर्थ ही है । लिखना तो नहीं चाहता लेकिन मजबूर हूँ ...अपनी बात के समर्थन में तथ्य तो देना ही पड़ेगा ....शहरी क्षेत्रों में सवर्णों के झूठे बर्तन माँज कर बड़ा हुआ यह समाज उल्टा हमारे मुंह तो लग सकता है , हमारा विरोध तो कर सकता हैं लेकिन किसी और का सामना करने का  इसमें नहीं । हम साठ बरसों में अपने ही लोगों से पराजित हुए हैं । टोकने पर मुंह जोर लोग कहते हैं .....हम तो वो चीज खाते हैं जो तुम भी क्या खाओगे । हमारे रात के खाने में चार सब्जी , हलवा ,पूड़ी , लम्बे लम्बे बांसमती के चावल होते हैं , सलाद के साथ । हमारे घर में पाँच पांच घरों का बचा हुआ खाना आता है । पत्नी से सवर्णों की झूठन घर लाकर स्वाद और लज्जत के साथ खाने वाला समाज विरोध आवाज कैसे उठाएगा ? जिसकी समाज में पत्नी घरों में काम करेगी उस समाज से शराब और जुआ छुडाना ....विरोध के लिए तैयार करना ....नामुमकिन सा लगता है ।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

नया नेतृत्व कैसे मिले ?

समाज के नेतृत्व के सवाल पर सब चुप हो जाते है ,

युवा कहता है - मैं बेरोजगार हूँ , मुझे कैरियर बनाना है , पढ़ना है , समाज के विषय में और लोग सोंचे ।
सरकारी नौकरी वाला कहता है - मैं सर्विस रूल से बँधा हूँ , खुलकर सामने नहीं आ सकता । मुझे जाने दो ।
प्राइवेट नौकरी वाला कहता है - पूरा समय नौकरी में ही निकल जाता है , समाज के लिए कहाँ से समय निकालूं ।
दुकानदार कहता है - दूकान बंद करके जाऊँगा तो धंधा चौपट हो जायेगा ।
व्यापारी कहता है - रुपया दे सकता हूँ लेकिन समय नहीं । 100 रुपया देगा और 500 लोगों से कहेगा कि मैंने चन्दा दिया है ।
रिटायर्ड अधिकारी कर्मचारी कहता है - शुगर का मरीज हूँ ,हर आधे घंटे में पेशाब करना पड़ता है , हार्ट का मरीज हूँ दौड़ भाग नहीं कर सकता । घर बैठे राय दे सकता हूँ , पैसा तो अब रहा ही नहीं ।
किसान और मजदूर अशिक्षित और कम संसाधनों की वजह से मजबूर हो जाते हैं ।
ऐसे में समाज को नया नेतृत्व कैसे मिले ?
या ऐसे में उसी बैरी पिया पर फिर दिल न लाया जाए तो क्या किया जाए ?

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

अरे भाई ! हमें भी जानकारी है मगर ....

प्रायः अधिकारी लोग मछुआ जातियों के बुद्धिजीवियों को बुद्धूजीवी समझते है और आरक्षण के मुआमले में हमारे लोगों को कानून पढा कर खामोश कर देना चाहते है । सत्ता के गलियारों में बैठे फाइलों का ढेर लगाए बैठे वे अधिकारी जो SC आरक्षण की बदौलत ही उच्च पदों पर आसीन है ...रोड़े अटकाते आये हैं । वे हर बार भूल जाते हैं कि 62 साल से वे जिस आरक्षण की रोटी तोड़ रहे हैं उस पर मछुआ समुदाय का भी उनके समान अधिकार है । हमें बेवकूफ़ समझने वाले जान लें .....हमने E J Kitts को पढ़ा है , हमने J N Bhattacharya को पढ़ा है , हमने M A Sheering को पढ़ा है । हमने H A Rose को पढ़ा है , हमने Blunt को समझा है , हमने  E T Atkinson को जाना है । हमने Denzil Ibbetson को पढ़ा है, हमने E D Maclagan को पढ़ा है, हमने H C Conybeare को पढ़ा है , हमने C H Brone को पढ़ा है, हमने H R Nevill को पढ़ा है, हमने W Crook को रट रखा है । हमने Risley को पढ़ा है ,हमने G S Ghurye को पढ़ा है । हमने R V Russel & Heera Lal को पढ़ा है ,हमने W C Abel को पढ़ा है इतना ही नहीं हमने A C Turner को भी खोज निकाला है।
हमने छेदी लाल साथी को संस्तुतियों सहित पढ़ा है , हमें डॉ बाबा साहब अंबेडकर के सम्पूर्ण वांग्मय को भी  पढ़ा है । इतना ही नहीं हमने 1891, 1901 , 1911, 1931 , 1951, 1961 ,1971, 1981 ,1991, 2001 की जनगणना रिपोर्टों को भी ध्यान से पढ़ा है ।
हमें भैया राम मुंडा बनाम अनिरुद्ध पटार 1971 , नारायण बेहरा बनाम उडीसा राज्य 1978 , शिवपूजन प्रसाद बनाम उ0प्र0 सरकार 1980 सहित राधेश्याम बनाम दिल्ली सरकार जैसे ऐतिहासिक नजीर बने सर्वोच्च / उच्च न्यायालयों के निर्णयों की भी अच्छी जानकारी है । इतने नाम 62 साल से आरक्षण की रोटी तोड़ रहा कोई SC अधिकारी गिना नहीं पायेगा .....अजी ! गिनाना तो दूर ...उसने नाम सुने तक नहीं होंगे । फिर हमारी फ़ाइल को आपत्तियां लगाकर रोकना और हमारे समाज को 62 सालों से संवैधानिक अधिकारों से वंचित करते रहना क्या देशदोह नहीं ? क्या ये मानवता के विरुद्ध षड्यंत्र नहीं ? क्या ये भद्दा मजाक नहीं ? क्या ये जिन्दा भाई भतीजा वाद नहीं ? क्या ये पद का दुरूपयोग नहीं ?
हमारे पास 1879 से लेकर 2012 तक के दस्तावेज मौजूद हैं क्योकि हमारे यहाँ दुनिया सबसे नायाब खजाना विश्व प्रसिद्द रजा लाइब्रेरी हैं । लेकिन इतना सब होने के बावजूद हम कमजोर है । कारण ........ हमारे लोग सोये हैं , संगठित नहीं हैं , अधिकारों की आवश्यकता को आज भी जान नहीं पा रहे है । अशिक्षा ,अन्धविश्वास और नशे के जाल में फंसे है । जो पढ़ लिख गए वे समाज के प्रति अपने दायित्वों को तिलांजलि दे चुके हैं ।

समय करवट ले रहा है .....2013/ 2014 का लोकसभा चुनाव दस्तक दे रहा है ...यदि मछुआ समुदाय ने अतीत से सबक सीखा और राजनैतिक शक्ति को संचित कर लिया तो चुनाव पूर्व ही सत्ता में बैठी लालची पार्टियाँ आपके आगे झुक जायेगी ।

बुधवार, 16 जनवरी 2013

मित्रों ,
आज रात्रि लखनऊ जा रहा हूँ । कल विक्रमादित्य मार्ग स्थित समाजवादी पार्टी कार्यालय पर सपा की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक है जिसमे सपा मुखिया समेत मुख्यमंत्री जी और अन्य वरिष्ठ मंत्री मौजूद रहेंगे । साथ ही मछुआ समुदाय के विधायक गण भी उपस्थित होंगे । मेरे नेतृत्व में मुरादाबाद मंडल का बीस सदस्यीय मछुआ प्रतिनिधि मंडल श्री मुलायम सिंह जी व मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव जी से भेंट करेगा और समाज की समस्याओं पर चर्चा करते हुए ज्ञापन देगा और ठोस निराकरण का मार्ग सुझाएगा । हमारी प्रमुख मांगे इस प्रकार है ।
1- मछुआ समुदाय समेत 17 अति पिछड़ी जातियों के प्रस्तावित SC आरक्षण का प्रस्ताव यथा शीघ्र केंद्र सरकार को भेजा जाए ।
2- उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति सूची में वर्णित गोंड , तुरैहा, खरबार, मझवार और बेलदार जातियों के बसपा सरकार द्वारा बंद किये गए अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र पुनः निर्गत करने के आदेश समस्त जिलाधिकारियों को अविलम्ब दिये जायें ।
3- गोंड के साथ राजगोंड , गौड़ , गोंड़ ,गोड़िया ,गुडिया .......तुरैहा के साथ धीमर , कहार .....खरबार के साथ कमकर ,खैरबार मझवार के साथ मांझी , मल्लाह, निषाद ,केवट रैकवार ....तथा बेलदार के साथ बिन्द जातियों को संगठित कर परिभाषित करते हुए जिला प्रशासन को मार्गदर्शन आदेश निर्गत किये जाएँ ।
4- मछुआ समुदाय की आबादी प्रदेश में एक करोड़ के आसपास है ...इतनी बड़ी आबादी की समस्याएँ भी अधिक ही होंगी अतः मछुआ आयोग का गठन किया जाएँ और उसे अदालती शक्ति प्रदान करते हुए अधिकार संपन्न बनाया जाए ताकि समाज के लोगों को वास्तविक न्याय मिल सके और समाज कोर्ट कचहरी के झंझट से मुक्त रहे ।
5- उ0प्र0 अनुसूचित जाति /जनजाति आयॉग , पिछड़ा वर्ग आयोग , सूचना आयोग और लोक सेवा आयोग में समाज के योग्य व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दिया जाए ताकि इन आयोगों में समाज की मजबूत पैरवी हो सके ।
6- यदि समाजवादी पार्टी 2014 का मिशन सफल देखना चाहती है तो मछुआ समुदाय के नेताओं को जिला से लेकर प्रदेश इकाइयों में जिम्मेदारी पूर्ण पद देकर मान सम्मान बढ़ाये ।
7- कम से कम तीन मंत्री कैबिनेट स्तर और चार राज्य मंत्री मछुआ समुदाय के बनाये जाएँ ।

शनिवार, 5 जनवरी 2013

सवाल बरक़रार है...........
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हम तो फिर भी हैं श्रमिक, धरा पे सो भी जायेंगे ।
वो सोचें अपनी खैरियत, कि किस तरह मनायेंगे ।
ये कैसे नीतिकार हैं, जो दुर्दशा पे मौन हैं,
ये नायकों के वेश में, पता लगाओ कौन है ।

वो प्रश्न हैं अनुत्तरित, जुड़े जो अस्तित्व से,
हमारे हर सवाल का, अभी जवाब शेष है।
हमारे उस विकास का, नया आयाम क्या हुआ ?
जो शोषणों पे लाते तुम, वो विराम क्या हुआ ?
हमारे नदी घाट के, वो वायदे कहाँ गए ?
जो आप देने वाले थे, वो फायदे कहाँ गए ?
हरेक मोड़, हर गली, सवाल पूछती यही
चुनाव घोषणाओं पे, ये कैसा तेरा मौन है
ये नायकों के वेश में, पता लगाओ कौन है ।

लोकतंत्र है यहाँ, मुकर भी जाओगे तो क्या
व्यवस्था मूक है सदा, पलट भी जाओगे तो क्या
मगर वो क्या करे फ़क़त, जो तेरी आस पे टिका
तेरी तलाश में रहा, तेरे लिए नहीं बिका।
तेरे लिए नहीं हटा, तेरे लिए अड़ा रहा ।
तेरे लिए डटा रहा, तेरे लिए खड़ा रहा ।
उठाये कब से घूमता हूँ, वायदों की पोटली
जो देखने में है हसीं, पर असलियत में खोखली
वो घोषणा हवा हुई, वो सब्ज़ बाग़ धुल गए
जरा नशा हुआ नहीं, कि तुम तो पूरे खुल गए
कोई अमल शुरू नहीं, व्यवस्था अब भी मौन हैं,
ये नायकों के वेश में, पता लगाओ कौन है ।

हमारी छातियों में क्रोध, बन के जो भभक रहा ।
कभी जो शांत दीखता था, आज वो भड़क रहा ।
सुबक रहा, सुलग रहा, ये वर्षो से दहक रहा ।
फटेगा एक दिन सुनो, ज्वालामुखी धधक रहा ।
तो सोच लो तबाही की, तुम्हें वो कल्पना नहीं ।
जो रोक ले निषाद को, तो ऐसा कुछ बना नहीं ।
हैं शूल सारे चुभ रहे, पथिक मगर झुको नहीं ।
पड़ाव मोह जाल है, रुको नहीं , रुको नहीं ।
हैं लक्ष्य अब पुकारता , जो भेद दे, वो बाण दो ।
कि शूरवीर हो तुम्हीं, प्रमाण दो ...प्रमाण दो ।
जो सो रहे है उन रगों में, इन्कलाब चाहिए ।
सवाल दर सवाल है, हमें जवाब चाहिए ।
सवाल बरक़रार है, हमें हिसाब चाहिए ।

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

हमारे पुरखों ने बताया था ........

हमारे पुरखों ने बताया कि तोप - तलवारों के बिना सिर्फ तीर कमान और पत्थरों से भी युद्ध जीते जा सकते हैं। उन्होने बताया कि पुलों के बिना भी भयंकर नदियां पार की जा सकती हैं। उनके बुलंद इरादों ने हमें बताया वृक्ष के एक तने से बनी नौका के सहारे महासागर को परस्त किया जा सकता है । उन्ही के संकल्प से हमने जाना कि नंगे पैरों से कांटो भरी सख्त जमीन पर भी महान यात्रायें संभव हैं। हमारे पुरखों ने बताया कि हिम्मत और हुनर हो तो जंगलों में भी सभ्यतायें फलफूल सकती हैं। हमारे पुरखों ने दुनिया को दिखलाया कि सूत के एक धागे से बने जाल से बड़ी से बड़ी मछली का शिकार संभव हैं । हमारे पूर्वजों ने दुनिया को दिखलाया यदि कंधे मजबूत हो तो दुनिया को इधर से उधर शिफ्ट भी किया जा सकता है । हमारे पुरखों ने सिद्ध किया कि यदि उपजाऊ भूमि न भी हो तो भी पथरीली और रेतीली बंजर जमीन पर फसलें (खीरा - ककड़ी, तरबूज खरबूज की ) उगाई जा सकती है । हमारे पुरखों की वैज्ञानिक सोच ने सिंगाड़ा उगा कर जल में भी कृषि कर दिखाई । हमारे पुरखों के पुरुषार्थ ने प्रमाणित कर दिया कि मछुआ समाज की ताक़त के सामने सात समुन्दरों की अस्मिता और अस्तित्व के भी कोई मायने नहीं है । नदियों के किनारे बिखरे पड़े हमारे सैकड़ों भग्नावशेष हमारे पुरखों के जयघोष की कथा स्वयं कहते हैं ।
आज हमारे पास नदियों पर पुल हैं लेकिन नदियों के वेग पर जीत हासिल करने वाले सीने नहीं हैं , रहने के लिए घर हैं, लेकिन घर बचाने के लिए लड़ने का हौसला नहीं है। चलने के लिए अच्छी सड़कें और जूते हैं पर लंबी यात्राओं की न जुर्रत हैं और न यात्री । पिछले 50 सालों में निषाद यदि पराजित हुए हैं तो किसी और से नहीं खुद से पराजित हुए हैं। क्या हम पराजयों के इस अनवरत सिलसिले को तोड़ देंगे हैं? क्या हम अपने गौरवशाली अतीत से शिक्षा लेंगे ? क्या हम निहत्थे होकर भी उस युद्ध के लिए तैयार हैं जो एक जाति के रुप में हमारे अस्त्तिव के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है।
 आइये , सामाजिक चितन के इस शिविर में एक निष्क्रय एवं मौन समर्थन न दें  अपितु कुछ बोलें ...........केवल बोलें नहीं बल्कि कुछ करें। बारुद की तरह ऐसे भड़कें कि आपकी चिनगारियां बहुत दूर से दिखें भी और बहुत दूर तक सुनी भी जाएँ ।